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Thursday, December 2, 2010

गुमशुदा की तलाश!

जिस ने सुख दुख देखा हो।

माटी मे जो खेला हो,
बुरा भला भी झेला हो।

सिर्फ़ गुलाब न हो,छाँटें 
झोली में हो कुछ काँटे। 

अनुभव की वो बात करे,
कोरा ज्ञान नहीं बाँटे।

मेले बीच अकेला हो,
ज्ञानी होकर चेला हो।

हर पल जिसने जीया हो,
अमिय,हलाहल पीया हो।

पौधा एक लगाया हो,
अतिथि देख हर्षाया हो।

डाली कोई न काटी हो,
मुस्काने हीं बाँटी हो।

सच से जो न मुकरा हो,
भरी तिजोरी फ़ुकरा हो।

मेहनत से ही कमाता हो,
खुद पे न इतराता हो।

अधिक नहीं वो खाता हो
दुर्बल को न सताता हो ।

थोडी दारु पीता हो,
पर इसी लिये न जीता हो।

अपने मान पे मरता हो,
इज़्ज़त सबकी करता हो।

ईश्वर का अनुरागी हो,
सब धर्मों से बागी हो।

हर स्त्री का मान करें
तुलसी उवाच मन में न धरे।

(डोल,गंवार........)

भाई को पहचाने जो,
दे न उसको ताने जो।

पैसे पे न मरता हो,
बातें सच्ची करता हो।

भला बुरा पहचाने जो,
मन ही की न माने जो।

कभी नही शर्माता हो,
लालच से घबराता हो।

ऐसा एक मनुज ढूँडो,
अग्रज या अनुज ढूँडो।

खुद पर ज़रा नज़र डालो,
आस पास देखो भालो।

ऐसा गर इंसान मिले,
मानो तुम भगवान मिलें!

उसको दोस्त बना लेना,
मीत समझ अपना लेना।

जीवन में सुख पाओगे,
कभी नहीं पछताओगे।


  

Saturday, November 20, 2010

बेउन्वान!

एक पुरानी रचना

पलकें नम, थी मेरी
घास पे शबनम की तरह.
तब्बसुम लब पे सजा था
किसी मरियम की तरह|

वो मुझे छोड गया था
संगे राह समझ
मै उसके साथ चला
हर पल हमकदम की तरह|


फ़रिस्ता मुझको समझ के ,
वो आज़माता रहा,
मैं तो कमज़ोर सा इंसान
था आदम की तरह|



ख्वाब जो देके गया ,
वो बहुत हंसी है मगर,
तमाम उम्र कटी मेरी
शबे गम की तरह।



Saturday, July 3, 2010

जंगली फ़ूलो का गुलदस्ता!!

मैने सोच लिया है इस बार
जब भी शहर जाउंगा,

एक खाली जगह देख कर
सजा दूंगा अपने 

सारे ज़ख्म,

सुना है शहरों मे 


कला के पारखी 


रहते है,


सुंदर और नायब चीजों, 


के दाम भी अच्छे मिलते है वहां।

पर डरता हूं ये सोच कर,



जंगली फ़ूलो का गुलदस्ता, 




कोई भी नहीं सजाता अपने घर में!




खास तौर पे बेजान शहर में!



Wednesday, April 7, 2010

वफ़ा की नुमाइश!



कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|

जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों  न जज़बातो, का सौदा करे कोई!

खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई| 


*******************************************





आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में  और भी Relevant हो जाता  है! 

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,

गर नही!तो,

’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

Thursday, March 11, 2010

ख्वाहिश!

तेरे मेरे 
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.

मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,

मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे

खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,

दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,

क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|

Friday, January 15, 2010

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !

आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा. 


जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।


दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।


जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद  हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।


मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।


मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।





Friday, December 11, 2009

दर्द का पता!



कल रात मेरी जीवन साथी संजीदा हो गईं,
मेरी कविताएं पढते हुये,


उसने पूछा,


क्या सच में! 


आप दर्द को इतनी शिद्द्त से महसूस करते हैं? 
या सिर्फ़ फ़लसफ़े के लिये मुद्दे चुन लेतें हैं!  


दर्द की झलक जो आपकी बातों में है,
वो आई कहां से?


मैने भी खूबसूरती से टालते हुये कहा,


दर्द खजाने हैं,इन्हें छुपा कर रखता हूं,
कभी दिल में,कभी दिल की गहराईओं में


खजानों का पता गर सब को बताता,
तो अब तक कब का लुट गया होता!


मेरे किसी दोस्त ने कभी बहुत ही सही कहा था!


’ये फ़कीरी लाख नियामत है, संभाल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले!’          

Thursday, November 5, 2009

दर्द का सच!



छुपा लाख तू जो गुजरी है हम दोनो में,
तेरा चेहरा तेरे हर सच का पता देता है.


पाक पलकों को तेरी,मैंने तो छूआ भी नहीं,
कैसा दिलबर है,तू जगने की सज़ा देता है.


मेरी कोशिश है,मैं आज के साथ जी पाऊं,
मेरा माज़ी है के, मेरा दर्द जगा देता है.


ये मोहब्ब्त है, इसे खेल न समझो यारों
दर्द इश्क का बढने पे मज़ा देता है.


दर्द देता है मज़ा,कभी अश्क मज़ा देता है,
ये तो इन्सान है,जो अच्छों को भुला देता है.



Tuesday, August 25, 2009

फ़िर से पढे 'ताल्लुकात का सच'!

मुझसे कह्ते तो सही ,जो रूठना था,
मुझे भी , झंझटों से छूटना था.

तमाम अक्स धुन्धले से नज़र आने लगे थे,
आईना था पुराना, टूटना था.

बात सीधी थी, मगर कह्ता मै कैसे,
कहता या न कहता, दिल तो टूटना था.

मैं लाया फूल ,तुम नाराज़ ही थे,
मैं लाता चांद, तुम्हें तो रूठना था.

याद तुमको अगर आती भी मेरी,
था दरिया का किनारा , छूटना था.

Tuesday, June 16, 2009

समंबन्धो का गणित


समंबन्धों के अंक गणित ,
कितने विचित्र हैं,
मस्तिष्क के छोटे से कैनवास पर,
न जाने कितने मानचित्र है.

चाहता है जब किसी से,
आदमी जाने कितना जोड लेता है,
लेता जब उससे, कितना घटा देता है,

अलग अलग मामले में,
अलग फ़ार्मूला एप्लाई करता है,
अपने गम सौ से मल्टीप्लाई,
दूसरे के गम हज़ार से डिवाइड करता है,
अपनी मुसीबतें लिये,
जहां भर को गाइड करता है,

देखता हूं तुमको जब,
बस इक बवाल आता है,
हर बार वही,
हाइट और डिस्टैन्स का सवाल आता है,

मेरा ये कहना, ये डिस्टैन्स तो कम हो,
तुम्हारा बताना ज़रा अपनी हाईट पे तो ध्यान दो,

बस अब तो दूर कर दो ये कन्फ़ूज़न,
और दे दो सैटिस्फ़ैक्शन,
कितनी हाईट ज़रूरी है और कितना परफ़ैक्शन
कितना और उठ जाऊं ,मै तुम्हें पाने को,
कितनी हाइट और ज़रूरी है ये डिस्टैन्स मिटाने को,

जिस सर्किल की तुम त्रिज्या हो,
उसकी परिधि मुझसे ही बनी है,
कहते हैं,सर्किल के केन्द्र को परिधि से मिलाने वाली रेखा,
त्रिज्या कहलाती है,
न जाने क्यों मुझे यही रेखा नही मिल पाती है,


हम अगर कभी मिल न पायें,
तो कम से कम समानान्तर ही आ जायें,

क्यों कि सुना है,
दो समानान्तर रेखाओं को,
चाहे जितनीं आडी तिरछी रेखायें काटतीं है,
आमने सामने के कोणों को,
हमेशा बराबर का बांटतीं हैं.
हमेशा बराबर का बांटतीं हैं.
..... हमेशा.......

इस गणितीय कविता का एक इतिहास भी है,आज से तकरीबन २०-२५ साल पहले जब हम जवान थे(मतलब के ताज़ा ताज़ा जवान हुये थे) और ज़िन्दगी की जद्दोजहद में गणित, बोटोनी,ज़ूलोजी एक अहम जगह रखतीं थी,एक शायराना जमीन मिली थी,’मस्तिष्क के कैनवास पर न जाने कैसे कैसे मन्ज़र है’ .
हमारे अज़ीज मित्र श्री अम्लेन्दु’अमल’ ने इसे लपक लिया और उपर उद्धरत उतक्र्ष्ट रचना को अवतरित किया था.
यह तबसे हम मित्रो और जानने वालों में खासी लोकप्रिय रही है, और ’मित्र सम्मेलनों’ में बडे चाव से सुनी सुनाई जाती थी. (हम में से कई तो इसे अपनी अपनी बता कर खासी वाह वाही भी लूट चुके हैं)

आज कई वर्ष बीत जाने के बाद जब जीवन में गणित की वो जगह नहीं बची ,फ़िर भी"समबन्धो का गणित" समझाती ये कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.

अपने Blog के पाठकों के साथ बांटने का लोभसंवरण नहीं कर पा रहा हूं. पता नहीं ,"अमल" कैसे react करेगा.माफ़ी तो मैं मागुंगा नहीं,क्यों कि उसने मेरी ज़मीन लपकी, मैंने कविता लपक ली!

Monday, June 15, 2009

ताल्लुकात का सच!


मुझसे कह्ते तो सही ,जो रूठना था,
मुझे भी , झंझटों से छूटना था.

तमाम अक्स धुन्धले से नज़र आने लगे थे,
आईना था पुराना, टूटना था.

बात सीधी थी, मगर कह्ता मै कैसे,
कहता या न कहता, दिल तो टूटना था.

मैं लाया फूल ,तुम नाराज़ ही थे,
मैं लाता चांद, तुम्हें तो रूठना था.

याद तुमको अगर आती भी मेरी,
था दरिया का किनारा , छूटना था.