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Sunday, October 24, 2010

झूंठ !


जब भी आपको झूंठ बोलना हो!
(अब आज कल करना ही पडता है!)

एक काम करियेगा,
झूंठ बोल के, कसम खा लीजियेगा,

अब! कसम जितनी मासूम हो,

उतना अच्छा!!

बच्चे की कसम,
सच्चे की कसम,
झूंठ के लच्छे की कसम,
हर एक अच्छे की कसम,


अच्छा माने 
गीता,कुरान,
बच्चे की मुस्कान,
तितली के रंग,
कोयल की बोली,
बर्फ़ की गोली, 
तोतली बोली,
मां की डांट 
पल्लू की गांठ,
...आदि,आदि

चाहे जो भी हो कसम ’पाक’ लगे!

लोग सच मान लेगें!

अगर न भी मानें,

तो भी कसम की लाज निभाने के लिये,

सच मानने का नाटक जरूर करेंगे!  

दरअसल,

लोग झूंठे, इस लिये नहीं होते,

कि वो झूंठ बोलते हैं!

वो झूंठे तब साबित होते हैं,

जब वो झूंठ सुनकर भी,

उसे ’सच’ मान लेने का नाटक करते हैं!!


क्यों कि वो सच का सामना करने से,डरते हैं!

"सच में"

कसम  तो मैं खाता नहीं!

Tuesday, October 12, 2010

ताल्लुकातों की धुंध!



पता नहीं क्यों,
जब भी मैं किसी से मिलता हूं,
अपना या बेगाना,
मुझे अपना सा लगता है!


और अपने अंदाज़ में


मैं खिल जाता हूं,
जैसे सर्दी की धूप,


मैं लिपट जाता हूं,
जैसे जाडे में लिहाफ़,


मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,


मैं याद आता हूं
जैसे भूला हिसाब,
(पांच रुप्पईया, बारह आना)  




मुझे कोई दिक्कत नहीं,
अपने इस तरीके से लेकिन,
पर अब सोचता हूं,
तो लगता है,


लोग हैरान ओ परेशान हो जाते हैं,
इतनी बेतकक्लुफ़ी देखकर,


फ़िर मुझे लगता है,
शायद गलती मेरी ही है,
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की,


लोग ताल्लुकातों की धुंध में


रहना पसंद करते है,


शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में


जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला 


जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,


है कौन? 



Saturday, October 2, 2010

पंचतत्रं और इकीसवीं सदी!

एक बार की बात है!
"’एक’ खरगोश ने ’एक’ कछुये से कहा!"......


’पंचतंत्र’ की कथाओं में ऐसा पढा था,

पर शायद, वो बीसवीं सदी की बात है!

एक्कीसवीं सदी में न तो,
विष्णु शर्मा को जानने वाले हैं!

न ये मानने वाले कि,

किसी ’खरगोश’ ने कभी किसी ,’कछुये’ से,


बात की होगी!

क्यों कि आज तो ’इंसान’की कही बात 
’इंसान’ को समझ में नहीं आती!

’खरगोश’और ’कछुये’ के बीच हुये संवाद को,
समझने वाला कहां ढूडते हो, 

इस समय में आप!