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Tuesday, January 4, 2011

गुफ़्तगू बे वजह! दूसरा बयान!

मोहब्बतों की कीमतें चुकाते,
मैने देखे है,
तमाम जिस्म और मन,
अब नही जाता मैं कभी
अरमानो की कब्रगाह की तरफ़।

दर्द बह सकता नहीं,
दरिया की तरह,
जाके जम जाता है,
लहू की मांनिद,
थोडी देर में!

अश्क से गर कोई
बना पाता नमक,
ज़िन्दगी खुशहाल,
कब की हो गई होती।

रिश्तो के खिलौने,
सिर्फ़ बहला सकते है,
दुखी मन को,
ज़िन्दगी गुजारने को,
पैसे चाहिये!!!!!!

Saturday, October 2, 2010

पंचतत्रं और इकीसवीं सदी!

एक बार की बात है!
"’एक’ खरगोश ने ’एक’ कछुये से कहा!"......


’पंचतंत्र’ की कथाओं में ऐसा पढा था,

पर शायद, वो बीसवीं सदी की बात है!

एक्कीसवीं सदी में न तो,
विष्णु शर्मा को जानने वाले हैं!

न ये मानने वाले कि,

किसी ’खरगोश’ ने कभी किसी ,’कछुये’ से,


बात की होगी!

क्यों कि आज तो ’इंसान’की कही बात 
’इंसान’ को समझ में नहीं आती!

’खरगोश’और ’कछुये’ के बीच हुये संवाद को,
समझने वाला कहां ढूडते हो, 

इस समय में आप!