ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

Showing posts with label ग़ज़ल. Show all posts
Showing posts with label ग़ज़ल. Show all posts

Tuesday, March 24, 2009

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !(Part I)



आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं पाउंगा।

जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।

दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बद्दुआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।

जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।

मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।

मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।

**********************************************************************************
आबे दरिया       : नदी का पानी
आज़ाद पसन्दी : Independent Thinking(nature)
फ़लसफा          : Philosophy


Monday, March 16, 2009

सफ़र का सच!



इन सब आफ़सानों में,शामिल कुछ ख्याब हमारे होते,
हम अगर टूट ना जाते तो शायद  सितारे होते।

तमाम कोशिशें मनाने की बेकार गयीं,
वो अगर रुठ ना जाते तो हमारे होते।

तूंफ़ां खुद मुसाफ़िर था कश्ती  में मेरी,
मुश्किलें पतवार थीं,वरना हम भी किनारे होतें।   

Sunday, March 15, 2009

ये भी सच है!

'कु्छ मुक्तक' लिखते समय एक शेर, मैने आप सब को सुनाया था, और ये भी वादा किया था,कि पूरी गज़ल बाद में कभी  सुनाउंगा। वो शेर कुछ ऎसे था,

"ये वो दौलत है जो बांटे से भी से भी बढ जाती है,
 ज़रा हँस दे भीगी पलकों को छुपाने वाले।" 

लीजिये अब उस कडी बाकी के शेर भी आप सब की नज़र हैं।

उन्नीदें चश्म तमाम रात, ख्वाबों की बाट जोहेंगे,
ज़रा तू घर तो पहुचं मेरी नींद उडाने वाले।

ये वो दौलत है जो बांटे से भी बढ जाती है,
ज़रा हँस  दे भीगी पलकों को छुपाने वाले।

वो बे लिबास लाश, कुछ उसूलों की थी,
जिसे सरे राह घसीटे थे कानून बनाने वाले।

ये फ़कीरी भी लाख नियामत है,संभल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगे ज़माने वाले।





Saturday, February 28, 2009

बस ऐसे ही !


मैं तुम्हारा नहीं हूँ ,ये बात तो मैं भी जानता हूँ.
मेरी तकलीफ ये है कि, ये बात तुम कहते क्यों हो.

ये तमाम ज़ख्म तो मोहब्बत में मैंने पाए हैं,
अजीब शक्स हो तुम, इस दर्द को सहते क्यों हो.

तेरी यादों पे जब मुझे कोई इख्तियार नहीं,
ये बताओ के फिर तुम मेरे दिल में रहते क्यों हो .




Wednesday, February 11, 2009

ज़ख़्मों की तहरीरें

हाथ में इबारतें,लकीरें थी
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरे थी. 
  
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था, 
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थी. 
 
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे, 
उनके हाथों में मगर शमशीरें थी. 
 
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी. 
 
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को, 
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थी. 

**************************************
On 12 Feb 09.
खुदा समझ के रहेज़दे में ताउम्र जिनके, 
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी. 

इस शेर के दो नये अंदाज़ पेश करता हूं:

खुदा बना के जिन्हें,किया ता उम्र सज़दा,
वख्त-ए-आख़िर पाया,वो झूंठ की ताबीरें थी

और एक इस तरह के:

दोस्तो को खुदा बना के,किया उम्र भर सज़दा,
वक़्त-ए-बद में ये जाना,वो झूंठ की ताबीरें थीं.