ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

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Monday, May 16, 2011

शायद मेरी तनहाई आपको रास न आये!



आप, मेरी तन्हाई पे तरस मत खाना,

मैं तन्हा हूँ नहीं,
मेरे तमाम साथी
दर्द,दुश्मनों की दुआयें,
दोस्तों की बेवाफ़ाई,गम-ओ-रंज़,
मुफ़लिसी,और "सनम की याद"!

बस अभी अभी,
ज़रा देर पहले ही...

बस यूँ ही ज़रा..
निकले हैं,
ताज़ा हवा में सासं लेने के लिये,


अब आप ही बताओं,
ज़रा सोच कर!
"ताज महल" लाख,
खूबसूरत और हवादार हो!
"मकबरा" आखिर "मकबरा" होता है!
और ज़िन्दा "शै" वहाँ कितनी देर बिता,सकते है?


और  वो भी लगातार बिना,
इस अहसास के साथ,
के ज़िन्दगी चलती रहती है
बिना ,उनके अहसास के साथ भी,
जो ज़िन्दा नहीं हैं!!!!

ज़िन्दा रहने के लिये,
ज़रूरी है,"ताज़" की खूबसूरती,
’दर्द’, ’रंज़’,’गम’तो आते जाते हैं!
ये सारे के सारे ज़िन्दा हैं,
और मेरे साथ हैं!
बस अभी अभी ज़रा!!!
यूँ ही ज़रा..............

मैं तन्हा नहीं हूँ!

Monday, July 6, 2009

नज़दीकियों का सच!

इस रचना को जो तव्वजो मिलनी चाहिये थी, शायद नहीं मिली,इस लिये एक बार फ़िर से post कर रहा हूं.

दूरियां खुद कह रही थीं,
नज़दीकियां इतनी न थी।
अहसासे ताल्लुकात में,
बारीकियां इतनी न थीं।

चारागर हैरान क्यों है,
हाले दिले खराब पर।
बीमार-ए- तर्के हाल की,
बीमारियां इतनी न थीं।

रो पडा सय्याद भी,
बुलबुल के नाला-ए- दर्द पे।
इक ज़रा सा दिल दुखा था,
बर्बादियां इतनी न थीं।

उसको मैं खुदा बना के,
उम्र भर सज़दा करूं?
ऐसा उसने क्या दिया था,
मेहरबानियां इतनी न थीं।


Tuesday, June 9, 2009

नज़दीकियों का सच!


दूरियां खुद कह रही थीं,
नज़दीकियां इतनी न थी।
अहसासे ताल्लुकात में,
बारीकियां इतनी न थीं।

चारागर हैरान क्यों है,
हाले दिले खराब पर।
बीमार-ए- तर्के हाल की,
बीमारियां इतनी न थीं।

रो पडा सय्याद भी,
बुलबुल के नाला-ए- दर्द पे।
इक ज़रा सा दिल दुखा था,
बर्बादियां इतनी न थीं।

उसको मैं खुदा बना के,
उम्र भर सज़दा करूं?
ऐसा उसने क्या दिया था,
मेहरबानियां इतनी न थीं।