आप, मेरी तन्हाई पे तरस मत खाना,
मैं तन्हा हूँ नहीं,
मेरे तमाम साथी
दर्द,दुश्मनों की दुआयें,
दोस्तों की बेवाफ़ाई,गम-ओ-रंज़,
मुफ़लिसी,और "सनम की याद"!
बस अभी अभी,
ज़रा देर पहले ही...
बस यूँ ही ज़रा..
निकले हैं,
ताज़ा हवा में सासं लेने के लिये,
अब आप ही बताओं,
ज़रा सोच कर!
"ताज महल" लाख,
खूबसूरत और हवादार हो!
"मकबरा" आखिर "मकबरा" होता है!
और ज़िन्दा "शै" वहाँ कितनी देर बिता,सकते है?
और वो भी लगातार बिना,
इस अहसास के साथ,
के ज़िन्दगी चलती रहती है
बिना ,उनके अहसास के साथ भी,
जो ज़िन्दा नहीं हैं!!!!
ज़िन्दा रहने के लिये,
ज़रूरी है,"ताज़" की खूबसूरती,
’दर्द’, ’रंज़’,’गम’तो आते जाते हैं!
ये सारे के सारे ज़िन्दा हैं,
और मेरे साथ हैं!
बस अभी अभी ज़रा!!!
यूँ ही ज़रा..............
मैं तन्हा नहीं हूँ!
सच में, तन्हा नहीं हैं आप।
ReplyDeleteअन्ना हजारे ने अनशन तोड़ा, प्रदर्शन-कारियों रेलवे-ट्रैक तोड़ा, विकास-प्राधिकरण ने झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा। हमारे नेताओं ने जनता का दिल तोड़ा। अनेक लोगों ने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अपने-अपने तरीके से बहुत कुछ तोड़ा है। तोड़ा-तोड़ी की परंपरा हमारे देश में सदियों पुरानी है। आपने कुछ तोड़ा नहीं अपितु माँ की रचनात्मकता से दिलों को जोड़ा है। इस प्रेम, करुणा और ममत्व को बनाए रखिए। भद्रजनों के जीवन की यही पतवार है। आपकी रचना का यही सार है। साधुवाद!
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
बहुत सुन्दर और भावप्रणव!
ReplyDeleteतन्हा होके भी कितनो का साथ है...!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत गहन बात कह दी है ताजमहल के माध्यम से ... सुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteऔर वो भी लगातार बिना,
ReplyDeleteइस अहसास के साथ,
के ज़िन्दगी चलती रहती है
बिना ,उनके अहसास के साथ भी,
जो ज़िन्दा नहीं हैं!!!!
बहुत खूब लिखा है.
"ताज महल" लाख,
ReplyDeleteखूबसूरत और हवादार हो!
"मकबरा" आखिर "मकबरा" होता है!
और ज़िन्दा "शै" वहाँ कितनी देर बिता,सकते है?... शायद इसीलिए आगरा जाकर भी ताजमहल के सामने की सड़क पर होकर भी मुझमें ताजमहल को देखने की उत्सुकता नहीं हुई . बहुत ही अच्छी रचना
आपका ब्लॉग देख कर प्रसन्नता हुई। कविता बहुत सुन्दर और भावपूर्ण है। बधाई।
ReplyDeleteअद्भुत अभिव्यक्ति...!
ReplyDeleteसचमुच... अकेले कहाँ हैं हम, हमारी तन्हाई साथ है हमारे, तमाम अव्ययों के साथ!