हाथ में इबारतें,लकीरें थी
सावांरीं मेहनत से तो वो तकदीरे थी.
जानिबे मंज़िल-ए-झूंठ ,मुझे भी जाना था,
पाँव में सच की मगर जंज़ीरें थी.
मैं तो समझा था फूल ,बरसेंगे,
उनके हाथों में मगर शमशीरें थी.
खुदा समझ के रहे सज़दे में ताउम्र जिनके,
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी.
पिरोया दर्द के धागे से तमाम लफ़्ज़ों को,
मेरी ग़ज़लें मेरे ज़ख़्मों की तहरीरें थी.
**************************************
On 12 Feb 09.
खुदा समझ के रहे सज़दे में ताउम्र जिनके,
गौर से देखा तो , वो झूंठ की ताबीरे॑ थी.
इस शेर के दो नये अंदाज़ पेश करता हूं:
खुदा बना के जिन्हें,किया ता उम्र सज़दा,
वख्त-ए-आख़िर पाया,वो झूंठ की ताबीरें थी
और एक इस तरह के:
दोस्तो को खुदा बना के,किया उम्र भर सज़दा,
वक़्त-ए-बद में ये जाना,वो झूंठ की ताबीरें थीं.