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Sunday, August 18, 2013

औरत और दरख्त!

औरत और दरख्त में क्या फ़र्क है?

मुझे नज़र नहीं आता,

क्या मेरी बात पे
आपको यकीं नहीं आता!

तो गौर फ़रमाएं,

मैं गर गलत हूँ!
तो ज़ुरूर बतायें

दोनों दिन में खाना बनाते हैं
एक ’क्लोरोफ़िल’ से,
और दूसरी
गर कुछ पकाने को न हो,
तो सिर्फ़ ’दिल’ से!

एक रात को CO2 से साँस बनाये है,
दूसरी हर साँस से आस लगाये है,

पेड की ही तरह ,
औरत मिल जायेगी,
हर जगह,

खेत में, खलिहान में,

घर में, दलान में,

बस्ती में,श्मशान में,

हाट में, दुकान में,

और तो और वहाँ भी,
जहाँ कॊई पेड नहीं होता,

’ज़िन्दा गोश्त’ की दुकान में!

अब क्या ज़ुरूरी नहीं दोनों को बचाना?

Sunday, November 13, 2011

कैक्टस


मैने कह दिया था न,

कि कैक्टस कभी भी,

चुभ सकते हैं,

फ़ूल भी कई मौसम गुज़र जाने बाद शायद ही आते हैं,

कैक्टस पर,

हाँ ये ज़रूर है,
जो लोग,

कैक्टस उगाते हैं

घरों में

वो होते हैं ,

विरले,
डिफ़रैंट, हट के , अलग से,
औफ़ बीट

कैक्टस की तरह ही!


दुख पाकर भी क्या कोई,
खुश हो सकता है?

कैक्टस की तरह।


Tuesday, July 5, 2011

"पेड या ताबूत"



आपको याद है न,
वो पेड!

नहीं! बरगद का नहीं!

अरे!


वो! जो आप सब के साथ,
जवाँ हुआ था,


अरे वो ही!

जो पौधे से वृक्ष बनने की कथा,
बडे दिलचस्प अँदाज़ मे बयाँ करता था!!

जिस के नीचे,
कई प्रेमी जोडे,
कभी न बिछ्डने की
कसम खा के,गये

और फ़िर कभी 
लौट के न आये,
’एक साथ’!

और जो गुहार लगाता था,
कि अगर कुछ नहीं हो सकता,
तो मुझे जाने दो,
पेपर मिल के आहते में,
और बन जाने दो,
हिस्सा उस कहानी का जो,
लिखी जाये मेरे सफ़ों पे,

अब पेड नहीं रहा,
टिम्बर बन गया,
वो पिछले हफ़्ते,

सुना हैं,
एक ताबूत बनाने वाली फ़र्म को मिला है
ठेका!
उस जीते जागते दरख्त को,
ताबूतों मे तब्दील कर देने का,
ताकि ताज़िन्दगी जो,
बात करता रहा "ज़िन्दगी" की,

उसे भी!

एहसास तो हो कि,
मौत भी कितनी हसीन और अटल सच्चाई है!