अन्धेरा इस कदर काला नहीं था,
उफ़्क पे झूठं का सूरज कहीं उग आया होगा।
चश्म मेरे तो कब के नमीं गवां बैठे,
लहू ज़िगर का अश्क बन के उभर आया होगा।
तब्ब्सुम मेरे होठों पे? क्या हैरत की बात है?
खुशी नही कोई दर्द दिल में उतर आया होगा।
मै ना जाता दरे दुशमन पे कसीदा पढने,
दोस्त बनके उसने मुझे धोखे से बुलाया होगा।
खुद्कुशी करने वालों को भी आओ माफ़ हम करदें,
जीते रहने का कोई रस्ता न नज़र आया होगा।