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Sunday, March 27, 2011

"मुकम्मल सुकूँ"!


चुन चुन के करता हूँ, 
मैं तारीफ़ें अपने मकबरे की ,
मर गया हूँ?
क्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!

गुज़रता हूँ,रोज़,
सिम्ते गुलशन से,
गुल नहीं,
बागवाँ नहीं,
तितलियाँ फ़िर भी,
यूँ ही आदतन,
तलाशे बहार में हैं!

न तू है,
न तेरी याद ही, बाकी कहीं,
फ़िर भी मैं हूँ,के,
तन्हा या फ़िर,
घिरा सा भीड में,
अपनी तन्हाई या तेरी यादों की!

मर के भी इंसान को,
मिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा, 
 मुकम्मल सुकूँ!

गर सुने 'पुर सुकूँ' हो कर कोई,
तो सुनाऊँ दास्ताँ अपनी कभी,
पर कहाँ मिलता अब,
एक लम्हा,एक घडी,
"मुकम्मल सुकूँ"! 

Saturday, February 5, 2011

तितलियों की बेवफ़ाई!



कुछ और ही होता 
चमन का नज़ारा 
अगर,
गुल ये जान जाते,


तितलियाँ और भ्रमर,
आते नहीं रंग-ओ-बू के लिये,
मकरंद का रस है,
उनके आने की वजह।

हाँ मगर,
यह छोटा सा मिलन भी,
स्वार्थ के कारण ही सही,
देके जाता है ,
चमन को ,
दास्ताँ हर बार एक नई।

और चलती है,
प्रकृति 
सर्जन के,
इस बेदर्द वाकये,
के भरोसे!

फ़ूल का खिलना हो,
या भ्रमर का गुंजन,
जारी है निरंतर,

और, 
चमन गुलज़ार है,
दर्द से भरी
पर हसीं 
दास्तानो से!