चुन चुन के करता हूँ,
मैं तारीफ़ें अपने मकबरे की ,
मर गया हूँ?
क्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!
गुज़रता हूँ,रोज़,
सिम्ते गुलशन से,
गुल नहीं,
बागवाँ नहीं,
तितलियाँ फ़िर भी,
यूँ ही आदतन,
तलाशे बहार में हैं!
न तू है,
न तेरी याद ही, बाकी कहीं,
फ़िर भी मैं हूँ,के,
तन्हा या फ़िर,
घिरा सा भीड में,
अपनी तन्हाई या तेरी यादों की!
मर के भी इंसान को,
मिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा, मुकम्मल सुकूँ!
गर सुने 'पुर सुकूँ' हो कर कोई,
तो सुनाऊँ दास्ताँ अपनी कभी,
पर कहाँ मिलता अब,
एक लम्हा,एक घडी,
"मुकम्मल सुकूँ"!
Love this blog...
ReplyDeleteख्वाहिश को मुकम्मल कर अन्ज़ामें- सुकूं कहाँ मिलता है ?
मिलती हैं नयी हसरतें रोज़ बस चैन नहीं मिलता है .
ये एक ऐसी चीज़ है जो अक्सर हज़ार कोशिशों के बाद भी नहीं मिलती और कभी दो जुमले भी काफी होते हैं
ReplyDeleteआप अपनी बात कह पाने में कामयाब हैं
सुकून अधूरा भी होता है क्या?
ReplyDeleteमुक्कमल सुकूँ की तलाश में इतने चेहरे हैं भीड़ में गुम
ReplyDeleteकि दो घड़ी की फुर्सत भी नहीं है कहीं
एक तारीफ तुमने कभी किया नहीं
तो खुद अपनी कब्र पे दिए जलाये बैठे हैं हम ...............
बहुत ही अच्छी लगी रचना और कुछ ऐसे ही ख्याल उमड़े
"मर गया हूँ?
ReplyDeleteक्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!"
इससे बड़ा सच हो ही नहीं सकता है इस ज़माने में.बहुत सुंदर जनाब.
vaah kya baat hai... bahut khoob... sach hee to likha hai..kahan milta hai muqqammal sukuN... bahut lajawaab likha hai...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर! आज बहुत दिनों के बाद ऑनलाइन आने का मौका मिला, और आपकी कविता पढ़ कर जी खुश हो गया| आपकी पिछली कुछ पोस्ट्स पढ़ नहीं पाई उसके लिए माफ़ी चाहती हूँ |:(
ReplyDelete.
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शिल्पा
हर एक सुधी पाठक का दिल से शुक्रिया!
ReplyDelete@ शिल्पा जी,माफ़ी न माँगे बल्कि बाकी की रचनायें पढकर,अपनी अच्छी टिप्पणी से उन्हें,नवाज़ें!
ख्वाहिशें कब मरती है... बहुत सही कहा, सुन्दर रचना बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteमर के भी इंसान को,
ReplyDeleteमिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा,
मुकम्मल सुकूँ!
bahut khoob ,behad pasand aaya .
kaash sukoon mil jata meri rooh ko, to kuch jeene me maza bhi aa jata...
ReplyDeletebahut sundar...
बहुत उम्दा.
ReplyDeleteमर के भी इंसान को,
मिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा,
मुकम्मल सुकूँ!
सुकूं मिल सकता है अगर सुकूं की तलाश बंद हो.
सलाम.
सब मिल जायेगा, बस यही नहीं मिलता जीतेजी। बहुत खूब कहा है आपने।
ReplyDeleteमर के भी इंसान को,
ReplyDeleteमिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा,
मुकम्मल सुकूँ!
और तलाश जारी है.....
बेहतरीन...
ख्वाहिशें ही तो हैं जो मरने नहीं देतीं ...खुशनसीब हैं वे सब जिनकी ख्वाहिशें जिन्दा हैं ।
ReplyDeletebilkul sach kaha aapne aapki baat par ek sher yaad aa gaya ----
ReplyDeletekabhi kisi ko mukammal jahan nahi milta
kabhi jamin to akhi aasman nahi mailta .
khwahisho ka kbhi ant ho hi nahi sakata .yahi to vah chcheej hai jiske liye manushhy kabhi bhi santust nahi ho paata
bahut hi sarthak post
poonam
"मर के भी इंसान को,
ReplyDeleteमिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा, एक टुकडा,
मुकम्मल सुकूँ!"
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बेहतरीन अंदाजे बयां के लिए -बधाई। शायद
इसीलिए किसी शाइर ने कहा है-
"जुस्तजू हो तो सफ़र ख़त्म कहाँ होता है।
यूँ ही हर मोड़ पे मंजिल क गुमाँ होता है॥"
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
हर किसी को मुकम्मिल जहाँ नहीं मिलता ...
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .....
चुन चुन के करता हूँ,
ReplyDeleteमैं तारीफ़ें अपने मकबरे की ,
मर गया हूँ?
क्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!
बेहद शानदार लाजवाब... सच सच और परम सत्य....
आपके ब्लॉग पे आया बहुत ही अच्चा लगा बढ़िया पोस्ट है धन्यवाद |
ReplyDeleteयहाँ भी आयें|
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