समंबन्धों के अंक गणित ,कितने विचित्र हैं,
मस्तिष्क के छोटे से कैनवास पर,
न जाने कितने मानचित्र है.
चाहता है जब किसी से,
आदमी जाने कितना जोड लेता है,
लेता जब उससे, कितना घटा देता है,
अलग अलग मामले में,
अलग फ़ार्मूला एप्लाई करता है,
अपने गम सौ से मल्टीप्लाई,
दूसरे के गम हज़ार से डिवाइड करता है,
अपनी मुसीबतें लिये,
जहां भर को गाइड करता है,
देखता हूं तुमको जब,
बस इक बवाल आता है,
हर बार वही,
हाइट और डिस्टैन्स का सवाल आता है,
मेरा ये कहना, ये डिस्टैन्स तो कम हो,
तुम्हारा बताना ज़रा अपनी हाईट पे तो ध्यान दो,
बस अब तो दूर कर दो ये कन्फ़ूज़न,
और दे दो सैटिस्फ़ैक्शन,
कितनी हाईट ज़रूरी है और कितना परफ़ैक्शन
कितना और उठ जाऊं ,मै तुम्हें पाने को,
कितनी हाइट और ज़रूरी है ये डिस्टैन्स मिटाने को,
जिस सर्किल की तुम त्रिज्या हो,
उसकी परिधि मुझसे ही बनी है,
कहते हैं,सर्किल के केन्द्र को परिधि से मिलाने वाली रेखा,
त्रिज्या कहलाती है,
न जाने क्यों मुझे यही रेखा नही मिल पाती है,
हम अगर कभी मिल न पायें,
तो कम से कम समानान्तर ही आ जायें,
क्यों कि सुना है,
दो समानान्तर रेखाओं को,
चाहे जितनीं आडी तिरछी रेखायें काटतीं है,
आमने सामने के कोणों को,
हमेशा बराबर का बांटतीं हैं.
हमेशा बराबर का बांटतीं हैं.
..... हमेशा.......
इस गणितीय कविता का एक इतिहास भी है,आज से तकरीबन २०-२५ साल पहले जब हम जवान थे(मतलब के ताज़ा ताज़ा जवान हुये थे) और ज़िन्दगी की जद्दोजहद में गणित, बोटोनी,ज़ूलोजी एक अहम जगह रखतीं थी,एक शायराना जमीन मिली थी,’मस्तिष्क के कैनवास पर न जाने कैसे कैसे मन्ज़र है’ .
हमारे अज़ीज मित्र श्री अम्लेन्दु’अमल’ ने इसे लपक लिया और उपर उद्धरत उतक्र्ष्ट रचना को अवतरित किया था.
यह तबसे हम मित्रो और जानने वालों में खासी लोकप्रिय रही है, और ’मित्र सम्मेलनों’ में बडे चाव से सुनी सुनाई जाती थी. (हम में से कई तो इसे अपनी अपनी बता कर खासी वाह वाही भी लूट चुके हैं)
आज कई वर्ष बीत जाने के बाद जब जीवन में गणित की वो जगह नहीं बची ,फ़िर भी"समबन्धो का गणित" समझाती ये कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है.
अपने Blog के पाठकों के साथ बांटने का लोभसंवरण नहीं कर पा रहा हूं. पता नहीं ,"अमल" कैसे react करेगा.माफ़ी तो मैं मागुंगा नहीं,क्यों कि उसने मेरी ज़मीन लपकी, मैंने कविता लपक ली!