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Wednesday, November 20, 2013

ठहराव!

कितना मुश्किल है,
किसी भी इंसा के लिये,
चलते चलते,रूक जाना
खुद ब खुद!

थक कर चूर,
कुछ मुसलसल चलने वाले
चाहते थे रूकना!
कभी,छाँव न मिली,
कभी रास न आया थकना।

मेंने कहा,अब रूक भी जाओ,
कोई,इक थोडी देर,
बस यूँ ही ज़रा,
वो बोले,
मगर कैसे?


जैसे,खोल दे कोई,
बंद मुठृठी को, मैंने कहा

वो  बोले,घबराकर,
मगर कैसे?

सच में कितना मुश्किल होता है,
जिन्दगियों का आसां होना।

रूके कोई क्यूं,
मौत के आगोश,से,
पहले भला!

चलते रहने का,क्यूँ
यूँ हीं चले ये सिलसिला?

Saturday, September 21, 2013

फ़क़ीरी

खा़र होने की भी कीमत चुकाई है मैने
गुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!


कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैं
कभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!


अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसी
बेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!


लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!

Sunday, August 18, 2013

औरत और दरख्त!

औरत और दरख्त में क्या फ़र्क है?

मुझे नज़र नहीं आता,

क्या मेरी बात पे
आपको यकीं नहीं आता!

तो गौर फ़रमाएं,

मैं गर गलत हूँ!
तो ज़ुरूर बतायें

दोनों दिन में खाना बनाते हैं
एक ’क्लोरोफ़िल’ से,
और दूसरी
गर कुछ पकाने को न हो,
तो सिर्फ़ ’दिल’ से!

एक रात को CO2 से साँस बनाये है,
दूसरी हर साँस से आस लगाये है,

पेड की ही तरह ,
औरत मिल जायेगी,
हर जगह,

खेत में, खलिहान में,

घर में, दलान में,

बस्ती में,श्मशान में,

हाट में, दुकान में,

और तो और वहाँ भी,
जहाँ कॊई पेड नहीं होता,

’ज़िन्दा गोश्त’ की दुकान में!

अब क्या ज़ुरूरी नहीं दोनों को बचाना?

Thursday, August 8, 2013

चाँद! ईद का!

चाँद तो चाँद है,

ईद का हो!

दूज का  हो!

हो पूनम का!


या,

चेहरा सनम का!

चाँद तो चाँद है.

   _कुश शर्मा.

मगर ये भी याद रखना है ज़ुरूरी,

"धूप लाख मेहरबाँ हो,मेरे दोस्त,
धूप, धूप होती है,चाँदनी नहीं होती"
     _शायर (न मालूम)