ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

Thursday, April 29, 2010

रंग कैसे कैसे!


 सबसे नयी और रियल  अभिनेत्री {Reality Show at Islamabad (D) Fame}
 माधुरी जी के (अ) सम्मान में !


लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।


Monday, April 26, 2010

नास्तिक होने का सच!


आप किसी नास्तिक से मिले है कभी?
मैं भी नहीं मिला,किसी सच्चे और प्योर हार्ड कोर नास्तिक से,
जितने भी तथाकथित ’नास्तिक’,मुझे मिले,

वे सब वो लोग थे,
जो जीवन की सभी मूलभूत सुविधाओं,
आरामदायक जीवन के साधनों,
का उपयोग करते हुये,
विचारों की कबब्डी खेलने के शौकीन थे,

एक भी ऐसा इंसान,जो जीवन संघर्ष में लगा हो,
या  किसी भी प्रकार के अभाव से जूझ रहा हो,
परम शक्ति के अस्तित्व को नकारता नहीं मिला,

तो मुझे लगा कि,
ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले लोग,
या तो वे हैं,जो स्वयं की सत्ता को मनवाना चाहते है,

या वो जिनके पास,
मानवीय बुद्धि का, वो टेढा पहलू है कि,
वो परमात्मा की सत्ता को नकार कर,
झूठे आंनद का मज़ा लेते हैं.

इन्हीं में से ’एक’ नास्तिक को जब मैने,
यही अपना  तर्क दिया तो झुंझलाकर बोला,
Thank God  I am a 'Rational Man'!
UNLIKE YOU!



चित्र_ मत्स्यावतार By "Isha" in Madhubani Style.


Wednesday, April 21, 2010

मुर्ग मुस्सलम और पानी!

खुली जगह जैसे लान या टेरस आदि में रखें 










































Select a Pot which is wide enough for the birds .












मेरे एक अज़ीज़ दोस्त का 
SMS आया,
लिखा था,

"भीषण गर्मी है,
भटकती चिडियों के लिये,
आप रखें,


खुली जगह,और बालकनी में,
पानी!"


"ईश्वर खुश होगा,
और करेगा,
आप पर मेहरबानी!"

मैं थोडा संजीदा हुया,
और लगा सोचने,

मौला! ये तेरी कैसी कारस्तानी?
ये मेरा जिगर से प्यारा दोस्त,
मुझसे क्यूं कर रहा है,छेडखानी!

पूरे का पूरा मुर्ग खा जाता है,
वो भी सादा नहीं,सिर्फ़ ’मुर्ग मसाला-ए-अफ़गानी’

तो क्या कहूं इसे,
इंसान की नादानी?
या दस्तूर-ए-दुनिया-ए-फ़ानी! 

कैसा दिल है इंसान का?
मुर्ग को ’मसाल दानी’!
और भटकते परिंदो को "पानी"!
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PS: Immediately after the writing this, thought I  kept the Pots as seen in the post. You all may like to do the same, because jokes apart we will help the poor birds by doing so:


वैसे भी :
एक ने कही, दूजे ने मानी,
गुरू का कहना दोनो ज्ञानी| 



Monday, April 19, 2010

सच में!

धन और सम्पदा,


आपको

आसानी से मरने नहीं देगी ,


सच है.


परन्तु

सच ये भी है,

कि,

यह आप को,

आसानी से,






जीने भी नहीं देगी!


अब थरूर और मोदी को ही ले लो!





Thursday, April 15, 2010

घर और वफ़ा!

मोहब्बतों से घरों को दुआयें मिलतीं हैं,
जो सच्चे लोग हैं उनको वफ़ायें मिलतीं है|

दर्द मिलने पे भी मुस्कुरा कर देखो!
रोने वालो को कडवी दवायें मिलती है|

कभी बीवी को भी वो ही सम्मान तो दो,
एक दम मां वाली दुआयें मिलती हैं|

उन के किरदार में ही कुछ कमी होगी,
कैसे लोग हैं जिन्हें घर से ज़फ़ायें मिलती है?



Tuesday, April 13, 2010

"सच में" यहां भी!

"सच में" के वो पाठक जो Word Press पर पढना पसंद करते हैं, नीचे दिए पते पर इन्ही रचनाओं का आनन्द  ले सकते हैं! 

http://ktheleo.wordpress.com/

Saturday, April 10, 2010

शायद इसी लिये!

तेरे थरथराते कांपते होठों पर,
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!

पर,

तभी बेसाख्ता  याद आया  
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!


मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के 

तू भी,

कभी तो!


मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद 
अपने आंसुओं की गिरा दे,

पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में 
घी डालने से!

Wednesday, April 7, 2010

वफ़ा की नुमाइश!



कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|

जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों  न जज़बातो, का सौदा करे कोई!

खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई| 


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आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में  और भी Relevant हो जाता  है! 

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,

गर नही!तो,

’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’

Friday, April 2, 2010

कडवी कडवी !!!

लहू अब अश्क में बहने लगा है,
नफ़रतें ख़्वाब  में आने लगीं हैं,

मरुस्थल से जिसे  घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं, 

हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है

चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें  
ऋतुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.

बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है.