बहुत मासूम है उसे ख्याब छुपाने नही आते.
मै बादल हूं,यहां से मेरा गुम जाना ही बेह्तर है,
नम पलकों को, बारिश के ये ज़माने नही भाते.
चलो अब नींद से भी अपना रिश्ता तोड लेता हूं,
खुली आंखो में तो, ख्याब सुहाने नहीं आते.
गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
चमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते.
सुन्दर विचार, अच्छी कहन
ReplyDeleteवीनस केसरी
"गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
ReplyDeleteचमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते"
इस बेहतरीन नज़्म के लिए बधाई।
राज़ अपने सारे मेरी पेशानी पे वो लिख गया
ReplyDeleteबहुत मासूम है वो ख्याब छुपाने नही आते.....ye pankatia aapki post pe kheench layee....tareef ke liye shabad nahi hai....boht sunder....
राज जी,
ReplyDeleteआपका तहे-दिल से शुक्रिया,आप आये और तमाम रचनाओं को अपना कीमती वख्त और अल्फ़ाज़ दिये.
आते रहें "सच में" पर और अपने स्नेह और करम से इसे नवाज़ें.
वीनस और मयंक जी,
ReplyDeleteआपका स्नेह बना रहें ’सच में’पर.धन्यवाद.
Oh ! Aapke blog pe khud ke alfazon kee kamee samajh me aatee hai...!
ReplyDeleteबहुत ख़ूब!
ReplyDelete---
तख़लीक़-ए-नज़र
चलो अब नींद से भी अपना रिश्ता तोड लेता हूं,
ReplyDeleteखुली आंखो में तो, ख्याब सुहाने नहीं आते.
गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
चमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते.
bahut achhi rachna
चलो अब नींद से भी अपना रिश्ता तोड लेता हूं,
ReplyDeleteखुली आंखो में तो, ख्याब सुहाने नहीं आते.
गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
चमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते.
bahut achhi rachna
गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
ReplyDeleteचमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते.
wah...!!! chaman ka sach...
गली तेरी क्या, तेरे शहर का भी अब रुख न करेंगे,
ReplyDeleteचमन की चाह है, हम फ़ूलों को रूलाने नहीं आते.
आपकी उलाहना मुझे मिल गयी...
और आपकी रचना, दिल में उतर गयी...
mera computer nahi kaam kar raha hai isliye, bhai ka computer use kiya hai...
aap iske pahle wali comment dlete kar dein..
'ada'
सुधी पाठकों का आदेश सर आखों पर.
ReplyDelete