ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

Sunday, February 1, 2009

हक़ीक़तन!


मैं तुम्हारा ही हूँ,कभी आज़मा के देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.

गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.

तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.

मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.

मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.



Wednesday, January 28, 2009

"और क्या कहूँ इसे"



रूठना वो तेरा ऐसे,
कहीं कुछ छूट गया हो जै
से.



बहुत बेरंग हैं आज शाम के रंग,
इंद्रधनुष टूट गया हो जैसे.


वो मेरे अरमान तमाम बिखरे हुए,
शीशा हाथ से छूट गया हो जैसे.

बात बहुत सीधी थी और कह भी दी 
तू मगर भूल गया हो जैसे.


कहते कहते यूँ तेरा रुक जाना,
साजिंदा रूठा गया हो जैसे.




Sunday, January 25, 2009

दर्द की मिक़दार


मौला, ना कर मेरी हर मुराद तू पूरी,
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो, ये करना होगा.

मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.

तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.




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मिक़दार:Quantity

रह्बर: Companion

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Thursday, January 22, 2009

"दादी की सुनाई हुई एक और कथा".


जो दादी ने सुनाई थी उसमें कुछ नये टर्म (contemprory) एड कर के सुनाता हूँ!

एक थे सिरक़टु (Jackal) और एक थी उनकी सिर्कॅटी (She Jackal). दोनो जंगल के किनारे पर एक मांद में जो शहर के एक दम नज़दीक़ था, रहते थे. सिर्कॅटी थोड़ी fashion conscious थी,और सिरक़टु को हमेशा इस बात, के लिए  कोसती रहती थी के वो ना तो खुद फैशन का ध्यान रखते हैं, और ना ही उसे रखने देते हैं.
सिरक़टु काफ़ी परेशान रहते थे पर क्या करते,बीवी जो ठहरी , एक दिन अड़ गयी नये  डेज़ाइन के बॅंगल्स ही चाहिए, सिरक़टु ने बहुत समझाया,घर की फिनान्सियल कंडीशन और मंहगाई का हवाला दिया और यह भी कहा कि के ये सब तो औरतों के चोचले हैं 'अच्छी सियारनी ' ऐसी ज़िद नही करतीं,पर वो कहाँ सुनने वाली थी.
सियारनी ने सिरक़टु का जीना मोहाल कर दिया,आते जाते बस........ बॅंगल्स.... ................ बॅंगल्स....नये बॅंगल्स!!!!!!!

सिरक़टु ने सोचा ये ना मानेगी चलो इसे सबक़ सिखाया जाए. शाम होने से पहले बोले,"डार्लिंग इतने दिन हो गये तुम बॅंगल्स,बॅंगल्स करती हो आज तुम्हारी  डिमांड पूरी कर ही देता हूँ. Be ready in the evening I will fetch the ,'Manihaar'(बॅंगल्स वाला) फ्रॉम the सिटी, अपने मन की चूड़ियाँ पहन लेना.


In the evening,the Jackal with a revengefull mind went to the city edge and howled in his typical voice,which attracted all the stray dogs of the city to chase the howling Jackal.

कुत्तों को अपने पीछे दौड़ाते हुए सिरक़टु पहुँच गये अपनी 'मांद' के सामने. अंदर घुस कर श्रीमती जी से बोले,'जाओ जा कर जो जो,चूड़ियाँ लेनी हैं ले लो. And for God' sake donot start bargaining with these Guys! I just hate this middle class attitude of yours!'

बाहर खड़े कुत्ते तो सिरक़टु के गायब हो जाने के रहस्य को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे और मांद का दरवाजा सूंघ कर इंतेज़ार कर रहे थे. जैसे ही श्रीमती सिर्कॅटी जी बाहर आईं ,वे सब उन पर टूट पड़े और सिर्कॅटी जी लगी चिल्लाने . उसकी चीखें और ज़ोर से आने पर अंदर से सिरक़टु जी जो अब सारी situation का मज़ा ले रहे थे बोले, "अरी भागवान, क्यों पैसे के लिए argue कर रही हो.I told you to hold back your middle class attitude,and be modern to not to bargain."

थोड़ी देर बाद जब कुत्तों का हौसला जवाब दे गया और जब उन्हे शहर में लगे बिजली के खम्भे याद आए, जो जंगल में नही थे,तो वो सिर्कॅटी को उस के हाल पे छोड़ कर वापस भाग लिए.

सिर्कॅटी(She जैकाल)को उस का सबक़ मिल गया था ,और (He) जैकाल को उसका peace of mind and life!!!!!

They possibly lived happily, there after!!!!!!!

और इस situation पर यह funny शेर बिल्कुल फिट बैठता है के:  

"माँग वो माँग के जिस माँग ने दिल माँग लिया,
और टाँग वो टाँग के जिस टाँग ने दिल टाँग लिया"
पता नही किस ने लिखा है ,पर लिखा बहुत खूब है.
And for those who want little more 'Masala'(musical) on "She-He"नोंक-झोंक of 70's please clik below here,switch on your speakars/put on headphones and enjoy! 



Wednesday, January 21, 2009

कुछ मुक्तक


अब इतनी ग़ज़लों और एक गीत के बाद मेरा दिल करता है, कि मैं कुछ पुराने लिखे हुए मुक्तक आप सब के साथ बाँट लूँ,क्यों की,आप का ही शेर है कि:


"यह वो दौलत है जो बाँटे से भी बढ़ जाती है,
ज़रा हँस दे ओ भीगी पलकों को छुपाने वाले."


पूरी ग़ज़ल फिर कभी, अभी तो चंद मुक्ताकों की बारी है,
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अच्छा हुआ के आप भी जल्दी समझ गये,
दीवानगी है शायरी,कोई बढ़िया शगल नही.
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जन्म दिन भी अज़ीब होते हैं,
लोग तॉहफ़ों के बोझ ढोते हैं,
कितनी अज़ीब बात है लेकिन,
पैदा होते ही बच्चे रोते हैं.

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जब मैं पैदा हुआ तो रोया था,
फिर ये बात बिसार दी मैने,
मौत की दस्तक़ हुई तो ये जाना,
ज़िंदगी सो कर गुज़ार दी मैने.

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मेरी बर्बादी मे वो भी थे बराबर के शरीक़,
हां वोही लोग जो,
मेरी म्य्यत पे फूट कर रोए.

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जज़्बात में अल्फ़ाज़ की ज़रूरत ही कहाँ हैं,
गुफ्तगू वो के तू सब जान गया,और मैं खामोश,यहाँ हूँ.

(Doesn't it reminds you of latest song by Subha Mudgal 'Sikho na Naono ki bhasha Piya, Sikho na>>>>>>>>>>>"सीखो ना नैनो की भाषा पिया..........!")
You may try ur luck on 'youtube'!

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And one in the language that we all speak but, very few of us understand it (me included!!!!)

"DEATH IS NOT CONTEGIOUS,
WE ARE BORN WITH THIS DISEASE."

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SABDARTH

म्य्यत : Grave/Arthi.

जज़्बात: Emotions.

अल्फ़ाज़: Words.

गुफ्तगू : Conversation

बिसार दी:Just Forgot.



Sunday, January 18, 2009

दर्द का मंज़र!


The recent events at Mumbai had generated a wave of helpnlessness among the Indians, I also felt the same, and couldnot control following 'expression' from being shared with you all.

इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
 मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.

मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.

चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.

लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से. 

और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:

ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
 पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.

दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.

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तीरगी:Darkness

ज़माल:Light of devine wisdom.

मसर्रत अता करें:Granting of comfort.

चारागर:Traditional doctor.
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Friday, January 16, 2009

दर्द की बूँद क़तरा- क़तरा'


मैने 08 जनवरी 2009 को एक पोस्ट लिखी थी जिसका उंवान
(I mean title) था "दर्द की बूँद"
(The same is available at 'Older Posts' at the bottem of the page)And the link is copied below
http://sachmein.blogspot.com/2009/01/dard-ki-boond.html 

पर मज़े की बात ये के जिस "एक्सप्रेशन" के लिए पूरी ग़ज़ल लिखी गयी वो ही लिखना भूल गया. आप सब की नज़र है के:  

"दर्द मंदों को नही दे पाए मरहम ना सही,
कम से कम बेरूख़ी की उन को ज़फायें ना दे,  

तेरे पहलू से बिछड़ के भी ज़िंदा हूँ मैं, 
बस इतनी सी बात पे,हिज्र की सज़ाए ना दे "

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मरहम :Ointment.
बेरूख़ी :Indifference.
ज़फायें :Cruelty.
हिज्र :Sepration

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एक कविता जो मैने लिखी ही नही.

बात की बात खुराफात की लात,
काँटे की चोंच में से निकले तीन तालाब,
दो सूखे एक में पानी ऩही,
जिस में पानी नही,
उससे निकले तीन कुम्हार,
दो लूले ,एक के हाथ ही नही,
जिस के हाथ ही नही,
उसने बनाए तीन बर्तन,
दो टूटे एक में पैंदा ही नही,
जिस में पैंदा नही,
उसमें पकाए तीन चावल,
दो कच्चे, एक पका ही नही,
जो पका नही,
उससे खिलाए तीन पंडित,
दो रूठ गये,एक आया ही नही,
जो आया नही 
उसे दिए तीन सिक्के,
दो खोटे,एक चला ही नही,
जो चला ऩही,
उससे लाया तंबाक़ू,
तंबाक़ू वाला भाग गया,
तंबाक़ू मिला ही नही.



Wednesday, January 14, 2009

"सूखे सर्राटे"!




एक कहानी बहुत पुरानी!


मेरी दादी ने तमाम कहानियाँ मुझे सुनाई थी उनमें से कुछ तो पन्चतन्त्र के मानदंडो पर खरी उतरती हैं कुछ ऐसी हैं जो कभी भी किसी मानदंड पर खरी नही उतरेंगी पर उनका ज्ञान किसी भी साहित्यक कथानक़ को चुनौती दे सक़ता है.


ऐसी ही एक कथा आप सब के साथ बाँटना चाहता हूँ.


(मेरा दिल तो करता है के  ब्रज भाषा जो मेरी दादी की बोली थी, में आप सबको यह सुनाऊं पर मैं जानता हूँ के,शायद आप सब को उतना आनंद ना आए, अत: हिन्दुस्तानी से ही काम चलाता हूँ.)




" एक बार गिलहरी और गिरगिट के बीच दोस्ती हो गयी ,गिलहरी ने गिरगिट से कहा कभी मेरे घर आना.


गिरगिट ने पूछा कहाँ आना है,गिलहरी बोली वो जो नदी के किनारे हरा भरा से पेड़ दिख रहा है,बस उसीके एक 'खोखर' में मैने अपना आशियाना बनाया है, वहीं चले आना.वैसे सबेरे -सबेरे मैं घर को सजाती हूँ,दिन में खाना पानी जुटाती हूँ, इसलिए शाम को आना बेहतर होगा. 


अगले दिन गिरगिट गिलहरी के घर पहुँच गया. गिलहरी का घर सुंदर तो था ही अपितु उसकी सजावट और हरे भरे वातावरण से गिलहरी के टेस्ट का भी भली भाँति पता चलता था.खैर ,गिरगिट जी का पहले तो नदी के ठंडे पानी से स्वागत हुया ,हरी घास, नर्म पत्तियाँ,वो सर्दियों का बचाया हुया अखरोट का टुक़ड़ा भी और जो कुछ गिलहरी को लगा के गिरगिट की पसंद का हो सक़ता है पेश किया गया.दुनियाँ जहाँ की बातें हूई और फिर जैसा की दस्तूर है,,विदा लेते समय गिरगिट ने भी गिलहरी को अपने यहाँ आने का निमंत्रण देते हुए विदा ली.


जाते जाते गिलहरी ने पूछा, ' गिरगिट जी आप रहते कहाँ हो?' गिरगिट ने जवाब दिया,' वो जहाँ नदी का किनारा ख़तम होता है और 'ऊसर' के किनारे सूखा हुया 'खजूर का पुराना पेड़ है बस वहीं आ जाना.'




कई दिन बीत जाने पर एक दिन गिलहरी ने सोचा सामाजिक संबंधों के नाते मेरा गिरगिट के यहाँ जाना ही उचित है,और वो सही समय देख कर उस के घर जा पहुँची पहले तो रास्ते की गर्म रेत से उसके नाज़ुक़ पाँव ही जल गये ,और उपर से दिक़्क़त ये के जब घर के पास पहुँची तो इतने ऊपर चढ़ने में नानी याद आ गई .


खैर, जैसे तैसे गिरगिट जी से मुलाक़ात हुई ,काफ़ी समय गुजर गया पर 'आवोभगत' का कोई नामोनिशान नही.पर गिलहरी तो सामाजिक़ मान्यताओं और सभ्यता के संस्कारों से बँधी हुई थी अत: धीरे से बोली, "गिरगिट जी आप अपना समय कैसे गुज़ारते हैं?"


गिरगिट तो जैसे इसी पल का इंतजार कर रहा था, लपक कर बोला, " अरे बड़े मज़े का काम है आईंये आप को अभी दिखता हूँ." इतना कह कर गिरगिट झट से लंबे खजूर के तने पर सरपट दौड़ता हुया नीचे से उपर और उपर से नीचे "सर्राटे" भर कर दौड़ने लगा . और तेज़ आवाज़ लगाकर गिलहरी से बोला आओ मेरी दोस्त थोड़ा सा तुम भी 'एंजाय' करो ना.


गिलहरी समझ चुकी थी यहाँ तो सिर्फ़ "सूखे सर्राटे " ही मिलेंगे.  
उसने तुरंत अपने दोस्त से विदा ली और मन ही मन कहा,  
"कितना अद्भुत सैर सपाटा,मुझे मिला सूखा सर्राटा" 





अब इस कहनी से मिलने वाले ज्ञान को में आप सब पाठकों की मेधा पर इस प्रॉमिस व वचन के साथ छोड़ देता हूँ , कि यदि किसी प्रबुध पाठक ने मुझ से वो ज्ञान जो मैने इस कथा से हासिल किया है, माँगा और मैने देने में ज़रा भी आनाकानी की तो मेरे सिर के उतने ही टुकड़े होंगे जितने 'वेताल' का जवाव ना देने पर ,'राजन विक्रमादित्य' के सर के हो सक़ते थे.


रास्तों का सच!


एक शमा की सब वफाएं,जब हवा से हो गयी.
बे चरांगा रास्तों का लुत्फ़ ही जाता रहा.


तुम अंधेरे की तरफ कुछ इस क़दर बढ़ते गये,
रौशनी मैं देखने का हुनर भी जाता रहा.


(On 25 of Jan 2009) दिल करता है कि इस शेर को कुछ ऐसे लिखूं:

तुम सितारों की चमक में,कुछ इस क़दर मसरूफ़ थे,
के रोशनी में देखने का हुनर ही जाता रहा.


जितने मेरे हमसफ़र थे अपनी मंज़िल को गये,
मैं था, सूनी राह थी, और एक सन्नाटा रहा . 


हाल-ए-मरीज़े इश्क़ का मैं क्या करूँ तुमसे बयाँ,
हर दवा का,हर दुआ का असर ही जाता रहा.

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लुत्फ़:Fun

हुनर:The art/ Capability of..

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Sunday, January 11, 2009

तिज़ारत!



दिल है कि मेरा जैसे एक खाली मक़ान है,
 जर्रजर तो हो गया है, मगर आलीशान है.


दुनियाँ के मरहले है,क्या सुलझे है आज तक,
इंसान है हम लोग , अत: परेशान है,


कुछ लोग तिज़ारत में यूँ माहिर हैं होगये,
घर उनके न अब घर रहे, जैसे दुकान हैं.



पूछा जो मैने आप का ईमान क्या हुआ?
आया जवाब, आप बत्तमिzओ बेईमान हैं.


हंस हंस के जला देते हैं, रिश्तों की लाश को,
 ये लोग हैं कि ,चलते फिरते श्मशान हैं.

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मरहले:Affairs.

तिज़ारत:Art/Science of business.

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