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Thursday, December 15, 2011

अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !


एक अरसा हुया ये चन्द शब्द लिखे हुये, आज ऐसे ही "सच में" की रचनाओं की पसंदगी नापसंदगी देखने की कोशिश कर रहा था, इस रचना को सब से ज्यादा बार पढा गया है, मेरे ब्लोग पर लेकिन हैरानी की बात है कि इस पर सिर्फ़ एक पढने वाले ने अपनी राय ज़ाहिर की है! मुझे लगा कि एक बार फ़िर से इसे पोस्ट करूं ,मेरे उन पाठकों के लिये जो पारखीं हैं और जिन की नज़र से यह रचना  चूक गई है!

आबे दरिया हूं मैं,कहीं ठहर नहीं पाउंगा,

मेरी फ़ितरत में है के, लौट नहीं आउंगा।

जो हैं गहराई में, मिलुगां  उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं कभी पहुंच नहीं पाउंगा।

दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बद्दुआ बनके  कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।

जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।

मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।

मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।

बहता रहता हूं, ज़ज़्बातों की रवानी लेकर,
दर्द की धूप से ,बादल में बदल जाउंगा।

बन के आंसू कभी आंखों से, छलक जाता हूं,
शब्द बन कर ,कभी गीतों में निखर जाउंगा।

मुझको पाने के लिये ,दिल में कुछ जगह कर लो, 
मु्ठ्ठी में बांधोगे ,तो हाथों से फ़िसल जाउंगा।  


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आबे दरिया       : नदी का पानी
आज़ाद पसन्दी Independent Thinking(nature)
फ़लसफा          : Philosophy


Sunday, November 13, 2011

कैक्टस


मैने कह दिया था न,

कि कैक्टस कभी भी,

चुभ सकते हैं,

फ़ूल भी कई मौसम गुज़र जाने बाद शायद ही आते हैं,

कैक्टस पर,

हाँ ये ज़रूर है,
जो लोग,

कैक्टस उगाते हैं

घरों में

वो होते हैं ,

विरले,
डिफ़रैंट, हट के , अलग से,
औफ़ बीट

कैक्टस की तरह ही!


दुख पाकर भी क्या कोई,
खुश हो सकता है?

कैक्टस की तरह।


Wednesday, November 9, 2011

गंगा आरती!



हरि पुत्री बन कर तू उतरी
माँ गंगा कहलाई,
पाप नाशनी,जीवन दायनी
जै हो गंगा माई!

भागीरथी,अलकनंदा,हैं 
नाम तुम्हारे प्यारे,
हरिद्वार में तेरे तट पर
खुलते हरि के द्वारे!

निर्मल जल 
अमृत सा तेरा,
देह प्राण को पाले
तेरी जलधारा छूते ही
टूटें सर्वपाप के ताले!

माँ गंगा तू इतनी निर्मल
जैसे प्रभु का दर्शन,
पोषक जल तेरा नित सींचे 
भारत माँ का आंगन!

तू ही जीवन देती अनाज में 
खेतों को जल देकर,
तू ही आत्मा को उबारती
देह जला कर तट पर!

पर मानव अब 
नहीं जानता,खुद से ही क्यों हारा,
तेरे अमृत जैसे जल को भी
कर बैठा विषधारा!

माँ का बूढा हो जाना,
हर बालक को खलता है,
प्रिय नहीं है,सत्य मगर है,
जीवन यूंही चलता है!

हमने तेरे आँचल में
क्या क्या नहीं गिराया,
"गंगा,बहती हो क्यूं?"भी पूछा,
खुद का दोष न पाया!

डर जाता हूं सिर्फ़ सोच कर,
क्या वो दिन भी आयेगा,
गंगाजल मानव बस जब,
माँ की आँखो में ही पायेगा! 

Monday, October 24, 2011

दीवाली सच में!

माँ लक्ष्मी आपको कोटिश: नमन 

और नमन के बाद,
खुली चुनौती है!

यदि आप ’सच में’ 
उस सत्य स्वरूप,
ईश्वर के प्रतिरूप 
क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करते,
परम पूज्य, सदा स्मरणीय,
भक्‍त हृदय निवासी,
दीनानाथ,दीनबन्धु
के चरण कमलों की सदा सेवा का वरदान प्राप्त कर,
जगत जननी स्वरूपा हैं...

तो अबके बरस ,
झूंठ,पाखंड,कपट,छल,
और दम्भ से इतराती
महलों की अट्टालिकाओं से

प्रभु की अद्भुत रचना ’मानव’ 
के रचे खेल देखने की बजाय,

किसी भूखे मेहेनती,
या सच्चे जरूरती के झोपडें मे जाना ज़रूर,

क्यों कि उसकी आस्था, 
उसकी गरीबी की पीडा की सीमायें लाँघ कर भी,
उसे आपकी आराधना को विवश करतीं हैं ,



माँ, कम से इतना तो हो ही सकता है,
"हैप्पी दिपावली" के अवसर पर!





यदि इस बार भी ऐसा न हुआ तो,
कलयुग फ़िर अट्टहास करते हुये,
ईश्वरीय आस्था के ह्रास का उद्घघोष कर देगा,

और अंधेरा , राम के पुनरागमन के बावजूद,
इस धरा पर अपने साम्राज्य के स्थाई होने का 
ऐलान कर मुस्कुरायेगा!

माँ, लक्ष्मी छोटी बात है, आपके लिये,
और मैंने कौन सी BMW माँग ली अपने लिये,

या मेरी पत्नी कोई,
तनिष्क के चार कंगन मिलने के बाद भी,
सिर्फ़ एक और Diamond Ring की ख्वाहिश कर रही है...








Saturday, October 8, 2011

झुनझुने!



कोई ऐसा शहर बनाओ यारों,
हर तरफ़ आईने लगाओ यारों!


नींद में खो गये हैं ज़मीर सभी,
शोर करो इन को जगाओ यारो!



नयी नस्लें इन्ही रास्तों से गुजरेंगी,
राहे मन्ज़िल से ये काई हटाओ यारो!


बच्चे भूखे हैं, दूध मांगते है,
ख्वाब के झुनझुने मत बजाओ यारों!



Friday, September 16, 2011

मन इंसान का!





मन इंसान का,
अपना कभी पराया है,
मन ही है जिसने 
इंसान को हराया है,


मन में आ जाये तो,
राम बन जाये तू,
मन की मर्ज़ी ने ही तो,
रावण को बनाया है!




मन के बस में ही,है
इंसान और उसकी हस्ती 
मन की बस्ती में आबाद
यादों का सरमाया है,


मन है कभी चमकती 
धूप सा रोशन,
मन के बादल में ही तो 
नाउम्मीदी का साया है,


मन ही लेकर चला
अंजानी राहो पे,
मन ही है जिसने 
मुझे भटकाया है,  


मन ही वजह 
डर की बनता है कभी,
इसी मन ने ही 
मुझे हौसला दिलाया है,


कभी बच्चे की मानिंद
मैं हँसा खिलखिलाकर,
इसी मन ने मुझे कभी,
बेइंतेहा रुलाया है,


मन तो मन है,
इंसान का मन,
मन की मर्ज़ी,को,
भला कौन समझ पाया है? 





Wednesday, September 7, 2011

आज हम तो कल तुम्हारी बारी है!

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"आज हम तो कल तुम्हारी बारी है,
चँद रोज़ की मेहमाँ ये जवानी है!"
From left to right: Ms Nanda,Ms Vahida Rahmaan,Ms Helen & Ms Babita

Tuesday, August 16, 2011

वीराने का घर



लोग बस गये जाकर  वीराने में,
सूना घर हूँ मैं बस्ती में रह जाउँगा।

तुम न आओगे चलों यूँ ही सही,
याद में तो मैं तुम्हारी आऊँगा।

पी चुका हूँ ज़हर मैं तन्हाई का,
पर चारागर कहता है,के बच जाउँगा।

कह दिया तुमने जो तुम्हें अच्छा लगा,
सच बहुत कडवा है,मैं न कह पाउँगा।

तुमको लगता है कि मैं बरबाद हूँ,
आइना रोज़े महशर तुम्हें दिखलाऊँगा।

Saturday, August 13, 2011

Sunday, July 31, 2011

वजह आँसुओं की...!


तुम्हें याद होगा,
अपना, बचपन जब,
हम दोनों खिल उठते थे,
किसी फ़ूल की मानिन्द!
अकसर बे वजह,
पर कभी कही गर मिल जाता था.
कोई एक..

कभी तितली या मोर का पंख,
कभी अगरबत्ती का रैपर,
कभी नई डाक टिकट,
कभी इन्द्रधनुष देख कर,
और कभी कभी तो,
सिर्फ़
मेंढक की टर्र टर्र,
सुन कर ही हो जाता था!
ये कमाल 

अरे कमाल  ही तो है,
दो मानव मनो का पुल्कित हो जाना,

तुम्हें याद होंगी,
वो तपती दोपहरें,
जब वो शहतूत का पेड,
मगन होता था,
कोयल की बात में,और,
मैं और तुम चुरा लेते थे,
न जाने कितने पल,
उस गर्म लू की तपिश से,

उफ़्फ़!!!!

तुम्हारे चेहरे का वो 
सुर्ख लाल  हो जाना,
मुझे तो याद है,अब तक...!


और वो एक दिन,
जुलाई का,
शायद ’छब्बीस’ थी,
सावन के आने में
देर थी अभी, 
पर तुम्हारे दर्द 
के बादल,बरस गये थे,
क्यों रोईं थीं तुम,
जब कि मालूम था,


कुछ नहीं बदलने वाला,

आज जब,ज़िन्दगी की शाम हैं,
जनवरी की तेरह,
मैने जला लिये हैं,
यादों के अलाव,
इस उम्मीद में कि
तपिश यादों की ही सही,
दे सके शायद कुछ सुकूँ,

वही गीली लकडियाँ 
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ, 
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!

छब्बीस थी शायद, वो जुलाई की!








Saturday, July 23, 2011

हक़ीक़तन! एक बार फ़िर!



मैं तुम्हारा ही हूँ,कभी आज़मा के देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.

गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.

तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.

मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.

मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.


Sunday, July 10, 2011

अल्ल बल्ल गल्ल...........!!!!!

अब कहाँ से लाऊँ,
हर रोज़ नये लफ़्ज़,
जो आपको,भायें!

मेरी कवितायें,
आपको पसंद आयें!

हैं कहाँ, लफ़्ज,
जो बयाँ कर पायें,
दास्ताँने हमारी और आपकी,
हम सब,और उन सबकी,

दर असल सारी की सारी कहानी,
घूमती है,एक छोटे से दायरे के इर्द गिर्द,

चन्द लफ़्ज़ों और जज़्बातों के चारों ओर,
गोल गोल एक बवंडर के माफ़िक,

लफ़्ज़ भी जाने पहचाने हैं,
और जज़्बात भी,
फ़िर भी इंसान है तलाश में,
कुछ नये की!

शब्द अल्बत्त्‍ता सब पुराने हैं,
अपने ही मौहल्ले के बाशिन्दों के चेहरों की माफ़िक,


यकीं नहीं है,
तो जरा इन लफ़्ज़ों से ,
नज़र बचा कर दिखाओ!!!

मोहब्बत,
मज़बूरी,
हालात,
कमज़ोरी,
हिम्मत,
दौलत,
दस्तूर,
जज़्बात,
.....
......
.......
........

जवानी,
अमीरी,
गरीबी,
इसकी,उसकी
भूख प्यास ,सुख ,दुख....


और तमाम दुनिया भर की,
अल्ल बल्ल गल्ल.................!

Tuesday, July 5, 2011

"पेड या ताबूत"



आपको याद है न,
वो पेड!

नहीं! बरगद का नहीं!

अरे!


वो! जो आप सब के साथ,
जवाँ हुआ था,


अरे वो ही!

जो पौधे से वृक्ष बनने की कथा,
बडे दिलचस्प अँदाज़ मे बयाँ करता था!!

जिस के नीचे,
कई प्रेमी जोडे,
कभी न बिछ्डने की
कसम खा के,गये

और फ़िर कभी 
लौट के न आये,
’एक साथ’!

और जो गुहार लगाता था,
कि अगर कुछ नहीं हो सकता,
तो मुझे जाने दो,
पेपर मिल के आहते में,
और बन जाने दो,
हिस्सा उस कहानी का जो,
लिखी जाये मेरे सफ़ों पे,

अब पेड नहीं रहा,
टिम्बर बन गया,
वो पिछले हफ़्ते,

सुना हैं,
एक ताबूत बनाने वाली फ़र्म को मिला है
ठेका!
उस जीते जागते दरख्त को,
ताबूतों मे तब्दील कर देने का,
ताकि ताज़िन्दगी जो,
बात करता रहा "ज़िन्दगी" की,

उसे भी!

एहसास तो हो कि,
मौत भी कितनी हसीन और अटल सच्चाई है!