कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|
जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों न जज़बातो, का सौदा करे कोई!
खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|
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आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में और भी Relevant हो जाता है!
सच गुनाह का!
तेरा काजल जो
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’