आज शाम प्राइम टाइम पर हिन्दी खबरो का एक मशहूर खबरी चैनल जो सबसे तेज़ तो नहीं है,पर TRP में शायद आगे रहता हो, एक सनसनी खेज खबर दिखा रहा था। शायद! क्यों कि मैं,खुद कभी ये TRP और उसका असली खेल समझ नहीं पाया,क्यों कि शायद मेरी खुद की TRP कभी भी रसातल से धरातल पर नहीं पहुंच पाई।खैर!,मेरी TRP बाद में,उस खबर पर आते हैं।
खबर के मुताबिक नागपुर में, एक ७४ साल के बुज़ुर्ग ने अपने सिर में 9 mm की रिवाल्वर से तीन गोलियां ठोक डालीं। चैनल की खबर के मुताबिक यह बुज़ुर्ग बिमारीयों की वजह से निराश था, और शायद इसी लिये उसने ऐसा किया।अब बुज़ुर्ग तो ICU में है और शल्यचिकित्सा के बाद सकुशल बाकी की ’सज़ा-ए-ज़िन्दगी’ काटने की तैयारी कर रहा है। यह अपने आप में शायद काफ़ी आश्चर्यजनक घटना है,परंतु मेरे ज़ेहन में एक बचपन में सुनी कहानी कौन्ध गई।अब ये कहानी कितनी "सच" या "झूंठ" है, और इसका उपरोक्त खबर से कितना लेना देना है, ये मैं अपने विवेक को बिना कष्ट दिये सुधी पाठकों के निर्णय पर छोड देता हूं, और कथा कहता हूं।
कई युगों पुरानी बात है, एक साधु और उसका शिष्य,जो जीवन दर्शन को ज्योतिष और देशाटन के माध्यम से समझने में जुटे हुये थे, गांव-गांव,नगर-नगर घूम कर अपना जीवन व्यतीत करते हुये फ़िरते थे,और जो कुछ मिल जाता उससे अपनी ज़िन्दगी की गुजर बसर करते थे।ये वो समय था जब Education इतनी Formal नहीं थी कि उसके लिये पैसे लगते हों ,बस गुरु के साथ साथ फ़िरो, जीवन जैसा उसका है, जियो और बस gain the knowledge of life!(इतना सिम्पल नहीं था!शायद!) खैर हमें इस सब से क्या!
एक दिन जब घूमते घूमते दोनों एक मरुस्थल को पार कर रहे थे,चेले का पैर एक मानव खोपडी से टकराया,उसने कौतूहल वश उसे उठा कर अपनी झोली में डाल लिया।रात में जब एक सराय में दोनों ने भोजन आदि करने के बाद आराम करने की मुद्रा पकडी तो शिष्य ने उचित समय जान कर गुरु से कहा,’ गुरू जी!,मस्तक रेखाओं को पढ कर भी मनुष्य का ,वर्तमान ,भविष्य और भूतकाल जाना सकता है, न? गुरु ने कहा हां हो तो सकता है।इस पर उत्साहित हो कर चेले ने लपक कर अपनी झोली से वही मानव खोपडी जो दोपहर उसने उठा कर अपनी झोली में डाल ली थी,निकाल लाया और गुरू जी के चरणों पर रख दी।निवेदन करते हुये बोला गुरू जी आज इस गोपनीय ञान से मुझे अवगत करा ही दो।आपसे निवेदन है कि,इस मानव कपाल की रेखाओं को पढकर इसका भूत,वर्तमान और भविष्य बांचों और मुझे भी सिखाओ।
(I am sure चेले ने उन दिनों प्रचलित तरीके से यह भी ज़रूर कहा होगा,Pleezzzzee!)
गुरू महान था और अपने शिष्य का अनुरोध मान कर बोला जरा प्रकाश की व्यवस्था कर।
कुछ देर रेखाओं की गहन भाषा में तल्लीन रहने के बाद, गुरू ने कहा,
"देश चोरी,मरुस्थल मृत्यु,अभी कुछ बाकी है!"
शिष्य ने कहा गुरू जी थोडा प्रकाश डालें।गुरू जी ने समझाते हुये कहा,इस व्यक्ति का भूतकाल कहता है, कि अपने देश(निवास स्थान) में चोरी करने के बाद वहां से भागते भागते, मरुस्थल में जा कर मृत्यु को प्राप्त होगा,जो इसका वर्तमान है, और इसका भविष्य कहता है कि इतने पर भी इसकी कर्म गति पूर्ण नहीं होगी,भविष्य में कुछ और भी घटित होगा।
शिष्य जो जाहिर है अभी उतना knowledgeable नहीं था बोला,’हे प्रभू, मृत्यु के बाद भी शरीर के साथ कुछ और क्या बाकी हो सकता है?’इस पर गुरू बोले न तो तू इतना पात्र है, और न मैं इतना ञानी कि तेरी इस शंका का मैं समाधान कर सकूं अतः तेरी और इस कपाल की भालाई इसी में है, कि तू इस को इसके हाल पर छोड, और गुरू सेवा में लीन हो कर, जरा मेरे चरणों का चम्पन कर!
शिष्य तुरंत आदेशानुसार गुरू जी की सेवा में जुट गया।कुछ ही पलों में गुरू जी निद्रा देवि की शरण में लीन हो गये।
पर चेला तो, चेला था पूरी रात नींद जैसे आंखों को छूने से भी मना कर रही हो! जागता रहा और सोचता रहा, अब क्या बाकी है, इस निर्जीव मनाव कपाल के लिये?क्या मृत्यु के बाद भी शरीर की कोई गति सम्भव है?क्या गुरू जी का ग्यान सच्चा है?क्या जो उन्होने कहा सच होगा?
इसी उधेड बुन में पूरी रात कट गई, पर न कोई उत्तर मिला और न मन को चैन, पर करता क्या बेचारा!प्रातः होते ही गुरु के आदेशानुसार सभी दैनिक कार्यों से निवृत हो कर ,जब चलने लगे तो गुरु जी की अनुमति लेकर कहा गुरु जी आप अग्रसर हों, मैं तुरंत ही आप का अनुसरण करता हूं। गुरू जी जो दयालु और अनन्य प्रेम करने वाले थे, शिष्य का कहा मान कर चल पडे। थोडी दूर ही पहुंच पाये थे कि हांफ़ता और भागता हुया चेला भी पीछे से आ पहूंचा और दोनों एक नये दिन और नई नगरी को चल पडे।
दिन ढलने पर जब पुनः रात्रि विश्राम की बारी आई तो चेले ने गुरू जी की चरण सेवा प्रारंभ करते ही पूछा,
’गुरू जी क्या आपने कल जो कहा वो सत्य होगा?मेरा तात्पर्य उस मानव कपाल के बारे मैं है?
इस पर गुरु जी बोले वत्स तू यह शंका किस पर कर रहा है,मेरे कथन की सत्यता पर या ज्योतिष के ञान पर?
शिष्य बोला, प्रभु माफ़ करें इस समय तो दोनो पर ही शंका हो रही है। आपको याद होगा आज सुबह चलने से पहले मैं आपकी अनुमति लेकर कुछ समय बाद आपके साथ आया था!उस दौरान मैने उस कपाल को सराय की ओखली में डाल कर मूसल से कूट कूट कर चूर्ण बना दिया, और चूर्ण को नदी मे प्रवाहित भी कर दिया! अब बतायें गुरु जी इस स्थिति में अब क्या बाकी है, उस कपाल का? गुरू ने मंद मुस्कुराते हुये कहा ,जो बाकी था तूने माध्यम बन कर पूरा कर तो दिया। शायद अब कुछ बाकी न हो!
यह तो रही कहानी की बात! मेरी शंका यह है,कि मृत्यु के बाद की गति की बात बेमानी है! असल मुद्दा है,कि जीवन की सज़ा पाये हुये लोगों कि गति का क्या मार्ग है, आइये इस प्रयास में लगें। और हां उन बुजुर्ग के साथ मेरी संवेदनाये जिन्हे शायद जीवन की जेल से कुछ दिन की पैरोल तो मिल जाये (कोमा में) पर उनकी रिहाई तो मेडिकल साईंस और किस्मत ने मिल कर रोक ही दी,अभी और क्या बाकी है, इस विषय पर आजकल का ज्योतिष शायद उतना विकसित नहीं रहा!
ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Wednesday, June 30, 2010
Saturday, June 26, 2010
नसीब !
ज़िन्दगी अच्छी है,
पर अज़ीब है न?
जो बुरा है,
कितना लज़ीज़ है न?
गुनाह कर के भी वो सुकून से है,
अपना अपना ज़मीर है न?
मैं तुझीसे मोहब्बत करता हूं
आखिर मेरा भी रकीब है न?
कैसे उठाऊं मै नाज़ तेरा,
कांधे पर सलीब है न?
उसका दुश्मन कोई नहीं है यहां
वो सच मे कितना बदनसीब है न?
सोना चांदी बटोरता रहता है,
बेचारा कितना गरीब है न?
दर्द पास आयेगा कैसे,
तू तो मेरे करीब है न?
पर अज़ीब है न?
जो बुरा है,
कितना लज़ीज़ है न?
गुनाह कर के भी वो सुकून से है,
अपना अपना ज़मीर है न?
मैं तुझीसे मोहब्बत करता हूं
आखिर मेरा भी रकीब है न?
कैसे उठाऊं मै नाज़ तेरा,
कांधे पर सलीब है न?
उसका दुश्मन कोई नहीं है यहां
वो सच मे कितना बदनसीब है न?
सोना चांदी बटोरता रहता है,
बेचारा कितना गरीब है न?
दर्द पास आयेगा कैसे,
तू तो मेरे करीब है न?
Wednesday, June 23, 2010
Thursday, June 10, 2010
पेड! "बरगद" का!
आपने बरगद देखा है,कभी!
जी हां, ’बरगद’,
बरर्गर नहीं,
’ब र ग द’ का पेड!
माफ़ करें,
आजकल शहरों में,
पेड ही नहीं होते,
बरगद की बात कौन जाने,
और ये जानना तो और भी मुश्किल है कि,
बरगद की लकडी इमारती नहीं होती,
माने कि, जब तक वो खडा है,
काम का है,
और जिस दिन गिर गया,
पता नही कहां गायब हो जाता है,
मेरे पिता ने बताया था ये सत्य एक दिन!
जब वो ज़िन्दा थे!
अब सोचता हूं,
मोहल्ले के बाहर वाली टाल वाले से पूछुंगा कभी,
क्या आप ’बरगद’ की लकडी खरीदते हो?
भला क्यों नहीं?
क्या बरगद की लकडी से ईमारती सामान नहीं बनता?
पता नहीं क्यों!
जी हां, ’बरगद’,
बरर्गर नहीं,
’ब र ग द’ का पेड!
माफ़ करें,
आजकल शहरों में,
पेड ही नहीं होते,
बरगद की बात कौन जाने,
और ये जानना तो और भी मुश्किल है कि,
बरगद की लकडी इमारती नहीं होती,
माने कि, जब तक वो खडा है,
काम का है,
और जिस दिन गिर गया,
पता नही कहां गायब हो जाता है,
मेरे पिता ने बताया था ये सत्य एक दिन!
जब वो ज़िन्दा थे!
अब सोचता हूं,
मोहल्ले के बाहर वाली टाल वाले से पूछुंगा कभी,
क्या आप ’बरगद’ की लकडी खरीदते हो?
भला क्यों नहीं?
क्या बरगद की लकडी से ईमारती सामान नहीं बनता?
पता नहीं क्यों!
Friday, May 21, 2010
इसे कोई न पढे!
थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,
बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,
वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,
और था एक पत्थर भी,
वो भी रास्ते का,
सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,
जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,
वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,
बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!
बीन सुन कर
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।
भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!
सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं,
नितांत यर्थाथ में।
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,
बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,
वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,
और था एक पत्थर भी,
वो भी रास्ते का,
सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,
जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,
वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,
बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!
बीन सुन कर
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।
भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!
सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं,
नितांत यर्थाथ में।
Tuesday, May 18, 2010
खामोशी!
कभी खामोश रह कर
सुनो तो सही,
क्या कहती है?
मेरी ये
खामोशी!
पर अफ़सोस ये है कि,
तुम्हारे तर्क वितर्क के शोर से से घबरा कर,
अक्सर
खामोश ही रह जाती है
मेरी
खामोशी!
सुनो तो सही,
क्या कहती है?
मेरी ये
खामोशी!
पर अफ़सोस ये है कि,
तुम्हारे तर्क वितर्क के शोर से से घबरा कर,
अक्सर
खामोश ही रह जाती है
मेरी
खामोशी!
Friday, May 14, 2010
’छ्ज्जा और मुन्डेर’
कई बार
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं,
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की,
मुन्डेरो से,
पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं
तेरी,यादें
और सच पूछो तो
अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।
मैं और मेरा मन
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि
तू नहीं है,न अपने
छ्ज्जे पर
और न मेरे आगोश में।
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं,
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की,
मुन्डेरो से,
पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं
तेरी,यादें
और सच पूछो तो
अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।
मैं और मेरा मन
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि
तू नहीं है,न अपने
छ्ज्जे पर
और न मेरे आगोश में।
Friday, May 7, 2010
प्राइस टैग!
अच्छा लगता है,
टूट कर,
बिखर जाना,
बशर्ते,
कोई तो हो
जो,
सहम कर,
हर टुकडा
उठा कर
दामन में रख ले.
कीमती समझ कर!
पर,
अकसर देखा है,
घरों में,
कीमती और नाज़ुक
चीज़ों पे
प्राइस टैग नहीं होते.!
और लोग खामोश गुजर जाते हैं,
चीजों के किरच -किरच हो कर बिखर जाने पर भी!
टूट कर,
बिखर जाना,
बशर्ते,
कोई तो हो
जो,
सहम कर,
हर टुकडा
उठा कर
दामन में रख ले.
कीमती समझ कर!
पर,
अकसर देखा है,
घरों में,
कीमती और नाज़ुक
चीज़ों पे
प्राइस टैग नहीं होते.!
और लोग खामोश गुजर जाते हैं,
चीजों के किरच -किरच हो कर बिखर जाने पर भी!
Wednesday, May 5, 2010
प्लीज़!
इस बार ऐसा करना,
जब बिना बताये आओ,
किसी दिन
तो
चुपचाप
चुरा कर ले जाना,
जो कुछ भी,
तुम्हें लगे,
कीमती,
मेरे घर,
जेहन,
या शख्शियत में,
प्लीज़!
गर ये भी न हो पाया,
(कि तुम्हे कुछ भी कीमती न लगे)
तो ,
मैं,
टूट जाउंगा,
क्यों कि सुना है,
मुफ़लिसी
इन्सान को
खोखला कर देती है!
जब बिना बताये आओ,
किसी दिन
तो
चुपचाप
चुरा कर ले जाना,
जो कुछ भी,
तुम्हें लगे,
कीमती,
मेरे घर,
जेहन,
या शख्शियत में,
प्लीज़!
गर ये भी न हो पाया,
(कि तुम्हे कुछ भी कीमती न लगे)
तो ,
मैं,
टूट जाउंगा,
क्यों कि सुना है,
मुफ़लिसी
इन्सान को
खोखला कर देती है!
Tuesday, May 4, 2010
आप ही कहो,क्या सच है?
औरतें भी इन्सान जैसी हो गईं है,
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!
निरुपमा ने ये शायद सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।
माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!
निरुपमा ने ये शायद सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।
माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।
खिलखाती खेलती थी बेटी मेरी,
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है।
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है।
Saturday, May 1, 2010
गद्दारी, सच में!
पैसे को हमने इस तरह भगवान कर दिया,
मक्कारी को इंसान ने ईमान कर लिया।
हमने तो उनको हाकिम का दर्ज़ा अता किया,
इज़्ज़त को सबकी,उसने पावदान कर लिया।
मिट्टी में देश की क्या अब खुशबू नहीं बची,
चंद हरकतो ने इसको नाबदान कर दिया।
यकीनन सदा से ही औरत, तस्वीरे वफ़ा है
एक गद्दार ने इस यकीं को बदनाम कर दिया।
मक्कारी को इंसान ने ईमान कर लिया।
हमने तो उनको हाकिम का दर्ज़ा अता किया,
इज़्ज़त को सबकी,उसने पावदान कर लिया।
मिट्टी में देश की क्या अब खुशबू नहीं बची,
चंद हरकतो ने इसको नाबदान कर दिया।
यकीनन सदा से ही औरत, तस्वीरे वफ़ा है
एक गद्दार ने इस यकीं को बदनाम कर दिया।
Thursday, April 29, 2010
रंग कैसे कैसे!
सबसे नयी और रियल अभिनेत्री {Reality Show at Islamabad (D) Fame}
माधुरी जी के (अ) सम्मान में !
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
Monday, April 26, 2010
नास्तिक होने का सच!
आप किसी नास्तिक से मिले है कभी?
मैं भी नहीं मिला,किसी सच्चे और प्योर हार्ड कोर नास्तिक से,
जितने भी तथाकथित ’नास्तिक’,मुझे मिले,
वे सब वो लोग थे,
जो जीवन की सभी मूलभूत सुविधाओं,
आरामदायक जीवन के साधनों,
का उपयोग करते हुये,
विचारों की कबब्डी खेलने के शौकीन थे,
एक भी ऐसा इंसान,जो जीवन संघर्ष में लगा हो,
या किसी भी प्रकार के अभाव से जूझ रहा हो,
परम शक्ति के अस्तित्व को नकारता नहीं मिला,
तो मुझे लगा कि,
ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले लोग,
या तो वे हैं,जो स्वयं की सत्ता को मनवाना चाहते है,
या वो जिनके पास,
मानवीय बुद्धि का, वो टेढा पहलू है कि,
वो परमात्मा की सत्ता को नकार कर,
झूठे आंनद का मज़ा लेते हैं.
इन्हीं में से ’एक’ नास्तिक को जब मैने,
यही अपना तर्क दिया तो झुंझलाकर बोला,
Thank God I am a 'Rational Man'!
UNLIKE YOU!
चित्र_ मत्स्यावतार By "Isha" in Madhubani Style.
Wednesday, April 21, 2010
मुर्ग मुस्सलम और पानी!
खुली जगह जैसे लान या टेरस आदि में रखें |
Select a Pot which is wide enough for the birds . |
मेरे एक अज़ीज़ दोस्त का
SMS आया,
लिखा था,
"भीषण गर्मी है,
भटकती चिडियों के लिये,
आप रखें,
खुली जगह,और बालकनी में,
पानी!"
"ईश्वर खुश होगा,
और करेगा,
आप पर मेहरबानी!"
मैं थोडा संजीदा हुया,
और लगा सोचने,
मौला! ये तेरी कैसी कारस्तानी?
ये मेरा जिगर से प्यारा दोस्त,
मुझसे क्यूं कर रहा है,छेडखानी!
पूरे का पूरा मुर्ग खा जाता है,
वो भी सादा नहीं,सिर्फ़ ’मुर्ग मसाला-ए-अफ़गानी’
तो क्या कहूं इसे,
इंसान की नादानी?
या दस्तूर-ए-दुनिया-ए-फ़ानी!
कैसा दिल है इंसान का?
मुर्ग को ’मसाल दानी’!
और भटकते परिंदो को "पानी"!
***************************************************************************************
PS: Immediately after the writing this, thought I kept the Pots as seen in the post. You all may like to do the same, because jokes apart we will help the poor birds by doing so:
वैसे भी :
एक ने कही, दूजे ने मानी,
गुरू का कहना दोनो ज्ञानी|
Monday, April 19, 2010
सच में!
धन और सम्पदा,
आपको
आसानी से मरने नहीं देगी ,
सच है.
परन्तु
सच ये भी है,
कि,
यह आप को,
आसानी से,
जीने भी नहीं देगी!
अब थरूर और मोदी को ही ले लो!
आपको
आसानी से मरने नहीं देगी ,
सच है.
परन्तु
सच ये भी है,
कि,
यह आप को,
आसानी से,
जीने भी नहीं देगी!
अब थरूर और मोदी को ही ले लो!
Thursday, April 15, 2010
घर और वफ़ा!
मोहब्बतों से घरों को दुआयें मिलतीं हैं,
जो सच्चे लोग हैं उनको वफ़ायें मिलतीं है|
दर्द मिलने पे भी मुस्कुरा कर देखो!
रोने वालो को कडवी दवायें मिलती है|
कभी बीवी को भी वो ही सम्मान तो दो,
एक दम मां वाली दुआयें मिलती हैं|
उन के किरदार में ही कुछ कमी होगी,
कैसे लोग हैं जिन्हें घर से ज़फ़ायें मिलती है?
जो सच्चे लोग हैं उनको वफ़ायें मिलतीं है|
दर्द मिलने पे भी मुस्कुरा कर देखो!
रोने वालो को कडवी दवायें मिलती है|
कभी बीवी को भी वो ही सम्मान तो दो,
एक दम मां वाली दुआयें मिलती हैं|
उन के किरदार में ही कुछ कमी होगी,
कैसे लोग हैं जिन्हें घर से ज़फ़ायें मिलती है?
Tuesday, April 13, 2010
"सच में" यहां भी!
"सच में" के वो पाठक जो Word Press पर पढना पसंद करते हैं, नीचे दिए पते पर इन्ही रचनाओं का आनन्द ले सकते हैं!
http://ktheleo.wordpress.com/
http://ktheleo.wordpress.com/
Saturday, April 10, 2010
शायद इसी लिये!
तेरे थरथराते कांपते होठों पर,
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!
पर,
तभी बेसाख्ता याद आया
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!
मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के
तू भी,
कभी तो!
मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद
अपने आंसुओं की गिरा दे,
पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में
घी डालने से!
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!
पर,
तभी बेसाख्ता याद आया
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!
मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के
तू भी,
कभी तो!
मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद
अपने आंसुओं की गिरा दे,
पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में
घी डालने से!
Wednesday, April 7, 2010
वफ़ा की नुमाइश!
कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|
जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों न जज़बातो, का सौदा करे कोई!
खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|
*******************************************
आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में और भी Relevant हो जाता है!
सच गुनाह का!
तेरा काजल जो
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
Friday, April 2, 2010
कडवी कडवी !!!
लहू अब अश्क में बहने लगा है,
नफ़रतें ख़्वाब में आने लगीं हैं,
मरुस्थल से जिसे घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं,
हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है
चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें
ऋतुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.
बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है.
नफ़रतें ख़्वाब में आने लगीं हैं,
मरुस्थल से जिसे घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं,
हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है
चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें
ऋतुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.
बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है.
Friday, March 26, 2010
कातिल की बात !
मैं कभी करता नहीं दिल की भी बात,
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
Monday, March 22, 2010
तलाश खुद अपनी!
इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।
मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!
Thursday, March 11, 2010
ख्वाहिश!
तेरे मेरे
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.
मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,
मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे
खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,
दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,
क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.
मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,
मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे
खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,
दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,
क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|
Thursday, March 4, 2010
कल्कि और कलियुग!
बहुत सोचने पर भी ,समझ में तो नहीं आया,
पर मानना पडा कि,
काल कालान्तर से कुछ भी नहीं बदला,
मानव के आचरण में,
और न हीं देव और देव नुमा प्राणिओं के,
पहले इन्द्र पाला करते थे,
मेनका,उर्वषि आदि,
विश्वामित्र आदि को भ्रष्ट करने के लिये,
और वो भी निज स्वार्थवश,
और अब स्वंयभू विश्वामित्र आदि,
पाल रहे हैं,
मेनका,उर्वषि..........आदि, आदि
तथा कथित इन्द्र नुमा हस्तियों को वश मे करने के लिये.
बदला क्या....?
सिर्फ़ काल,वेश, परिवेश,और परिस्थितियां,
मानव आचरण तब भी, अब भी........
कपट,झूठं,लालच, आडम्बर,वासना, हिंसा और..
नश्वर एंव नापाक होते हुये भी,
स्वंयभू "भगवान" बन जाने की कुत्सित अभिलाषा.......
Saturday, February 27, 2010
दर्द की मिकदार!एक बार फ़िर से!
मौला, ना कर मेरी हर मुराद तू पूरी,
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो,ये करना होगा.
मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.
तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.
होली के मौके पर खास !
रंग चेहरे पे कई तुमने सजा कर देखे,
नूर लाने के लिये,रंग रूह का बदलना होगा.
Sunday, February 14, 2010
सच और सियासत!
कुछ लफ़्ज़ मेरे इतने असरदार हो गय्रे,
चेहरे तमाम लोगो के अखबार हो गये.
मक्कारी का ज़माने में ऐसा चलन हुया,
चमचे तमाम शहर की सरकार हो गये.
यूं ’कडवे सच’ से ज़िन्दगी में रूबरू हुये,
रिश्ते तमाम तब से बस किरदार हो गये.
चंद दोस्तों ने वफ़ा की ऐसी मिसाल दी,
कि दुश्मनों के पैतरे बेकार हो गये.
Thursday, February 11, 2010
इंसान होने की सजा!
मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
Wednesday, February 3, 2010
इकबाले ज़ुर्म!
जब मै आता हूं कहने पे,तो सब छोड के कह देता हूं,
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,
दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.
मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.
भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं.
वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन तोड के कह देता हूं.
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,
दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.
मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.
भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं.
वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन तोड के कह देता हूं.
Friday, January 29, 2010
मुगाल्ते
मै नहीं मेरा अक्स होगा,
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
Sunday, January 24, 2010
मजाक सच में
हालात से लोग मजबूर हो गये है,
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.
इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है
रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है
हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.
इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है
रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है
हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.
Friday, January 15, 2010
अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !
आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा.
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
Thursday, December 31, 2009
नया साल! सच में!
ज़िन्दगी का नया सिलसिला कीजिये,
भूल कर रंज़-ओ-गम मुस्कुरा दीजिये.
लोग अच्छे बुरे हर तरीके के हैं,
खोल कर दिल न सबसे मिला कीजिये.
तआरुफ़-ओ-तकरार करने से है,
ये करा कीजिये, वो न करा कीजिये.
शेर कह्ता हूं फ़िर एक नये रंग का
मुझको यादों का नश्तर चुभा दीजिये.
साल आने को है, साल जाने को है,
खास मौका है इसका मज़ा लीजिये.
Friday, December 11, 2009
दर्द का पता!
कल रात मेरी जीवन साथी संजीदा हो गईं,
मेरी कविताएं पढते हुये,
उसने पूछा,
क्या सच में!
आप दर्द को इतनी शिद्द्त से महसूस करते हैं?
या सिर्फ़ फ़लसफ़े के लिये मुद्दे चुन लेतें हैं!
दर्द की झलक जो आपकी बातों में है,
वो आई कहां से?
मैने भी खूबसूरती से टालते हुये कहा,
दर्द खजाने हैं,इन्हें छुपा कर रखता हूं,
कभी दिल में,कभी दिल की गहराईओं में
खजानों का पता गर सब को बताता,
तो अब तक कब का लुट गया होता!
मेरे किसी दोस्त ने कभी बहुत ही सही कहा था!
’ये फ़कीरी लाख नियामत है, संभाल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले!’
Tuesday, December 8, 2009
कोपन्हेगन के संदर्भ में!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
Wednesday, December 2, 2009
तीरगी का सच!
Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :
इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.
मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.
चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.
लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से.
और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:
ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.
दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.
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