इस बार ऐसा करना,
जब बिना बताये आओ,
किसी दिन
तो
चुपचाप
चुरा कर ले जाना,
जो कुछ भी,
तुम्हें लगे,
कीमती,
मेरे घर,
जेहन,
या शख्शियत में,
प्लीज़!
गर ये भी न हो पाया,
(कि तुम्हे कुछ भी कीमती न लगे)
तो ,
मैं,
टूट जाउंगा,
क्यों कि सुना है,
मुफ़लिसी
इन्सान को
खोखला कर देती है!
ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Wednesday, May 5, 2010
Tuesday, May 4, 2010
आप ही कहो,क्या सच है?
औरतें भी इन्सान जैसी हो गईं है,
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!
निरुपमा ने ये शायद सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।
माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!
निरुपमा ने ये शायद सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।
माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।
खिलखाती खेलती थी बेटी मेरी,
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है।
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है।
Saturday, May 1, 2010
गद्दारी, सच में!
पैसे को हमने इस तरह भगवान कर दिया,
मक्कारी को इंसान ने ईमान कर लिया।
हमने तो उनको हाकिम का दर्ज़ा अता किया,
इज़्ज़त को सबकी,उसने पावदान कर लिया।
मिट्टी में देश की क्या अब खुशबू नहीं बची,
चंद हरकतो ने इसको नाबदान कर दिया।
यकीनन सदा से ही औरत, तस्वीरे वफ़ा है
एक गद्दार ने इस यकीं को बदनाम कर दिया।
मक्कारी को इंसान ने ईमान कर लिया।
हमने तो उनको हाकिम का दर्ज़ा अता किया,
इज़्ज़त को सबकी,उसने पावदान कर लिया।
मिट्टी में देश की क्या अब खुशबू नहीं बची,
चंद हरकतो ने इसको नाबदान कर दिया।
यकीनन सदा से ही औरत, तस्वीरे वफ़ा है
एक गद्दार ने इस यकीं को बदनाम कर दिया।
Thursday, April 29, 2010
रंग कैसे कैसे!
सबसे नयी और रियल अभिनेत्री {Reality Show at Islamabad (D) Fame}
माधुरी जी के (अ) सम्मान में !
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
Monday, April 26, 2010
नास्तिक होने का सच!
आप किसी नास्तिक से मिले है कभी?
मैं भी नहीं मिला,किसी सच्चे और प्योर हार्ड कोर नास्तिक से,
जितने भी तथाकथित ’नास्तिक’,मुझे मिले,
वे सब वो लोग थे,
जो जीवन की सभी मूलभूत सुविधाओं,
आरामदायक जीवन के साधनों,
का उपयोग करते हुये,
विचारों की कबब्डी खेलने के शौकीन थे,
एक भी ऐसा इंसान,जो जीवन संघर्ष में लगा हो,
या किसी भी प्रकार के अभाव से जूझ रहा हो,
परम शक्ति के अस्तित्व को नकारता नहीं मिला,
तो मुझे लगा कि,
ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले लोग,
या तो वे हैं,जो स्वयं की सत्ता को मनवाना चाहते है,
या वो जिनके पास,
मानवीय बुद्धि का, वो टेढा पहलू है कि,
वो परमात्मा की सत्ता को नकार कर,
झूठे आंनद का मज़ा लेते हैं.
इन्हीं में से ’एक’ नास्तिक को जब मैने,
यही अपना तर्क दिया तो झुंझलाकर बोला,
Thank God I am a 'Rational Man'!
UNLIKE YOU!
चित्र_ मत्स्यावतार By "Isha" in Madhubani Style.
Wednesday, April 21, 2010
मुर्ग मुस्सलम और पानी!
खुली जगह जैसे लान या टेरस आदि में रखें |
Select a Pot which is wide enough for the birds . |
मेरे एक अज़ीज़ दोस्त का
SMS आया,
लिखा था,
"भीषण गर्मी है,
भटकती चिडियों के लिये,
आप रखें,
खुली जगह,और बालकनी में,
पानी!"
"ईश्वर खुश होगा,
और करेगा,
आप पर मेहरबानी!"
मैं थोडा संजीदा हुया,
और लगा सोचने,
मौला! ये तेरी कैसी कारस्तानी?
ये मेरा जिगर से प्यारा दोस्त,
मुझसे क्यूं कर रहा है,छेडखानी!
पूरे का पूरा मुर्ग खा जाता है,
वो भी सादा नहीं,सिर्फ़ ’मुर्ग मसाला-ए-अफ़गानी’
तो क्या कहूं इसे,
इंसान की नादानी?
या दस्तूर-ए-दुनिया-ए-फ़ानी!
कैसा दिल है इंसान का?
मुर्ग को ’मसाल दानी’!
और भटकते परिंदो को "पानी"!
***************************************************************************************
PS: Immediately after the writing this, thought I kept the Pots as seen in the post. You all may like to do the same, because jokes apart we will help the poor birds by doing so:
वैसे भी :
एक ने कही, दूजे ने मानी,
गुरू का कहना दोनो ज्ञानी|
Monday, April 19, 2010
सच में!
धन और सम्पदा,
आपको
आसानी से मरने नहीं देगी ,
सच है.
परन्तु
सच ये भी है,
कि,
यह आप को,
आसानी से,
जीने भी नहीं देगी!
अब थरूर और मोदी को ही ले लो!
आपको
आसानी से मरने नहीं देगी ,
सच है.
परन्तु
सच ये भी है,
कि,
यह आप को,
आसानी से,
जीने भी नहीं देगी!
अब थरूर और मोदी को ही ले लो!
Thursday, April 15, 2010
घर और वफ़ा!
मोहब्बतों से घरों को दुआयें मिलतीं हैं,
जो सच्चे लोग हैं उनको वफ़ायें मिलतीं है|
दर्द मिलने पे भी मुस्कुरा कर देखो!
रोने वालो को कडवी दवायें मिलती है|
कभी बीवी को भी वो ही सम्मान तो दो,
एक दम मां वाली दुआयें मिलती हैं|
उन के किरदार में ही कुछ कमी होगी,
कैसे लोग हैं जिन्हें घर से ज़फ़ायें मिलती है?
जो सच्चे लोग हैं उनको वफ़ायें मिलतीं है|
दर्द मिलने पे भी मुस्कुरा कर देखो!
रोने वालो को कडवी दवायें मिलती है|
कभी बीवी को भी वो ही सम्मान तो दो,
एक दम मां वाली दुआयें मिलती हैं|
उन के किरदार में ही कुछ कमी होगी,
कैसे लोग हैं जिन्हें घर से ज़फ़ायें मिलती है?
Tuesday, April 13, 2010
"सच में" यहां भी!
"सच में" के वो पाठक जो Word Press पर पढना पसंद करते हैं, नीचे दिए पते पर इन्ही रचनाओं का आनन्द ले सकते हैं!
http://ktheleo.wordpress.com/
http://ktheleo.wordpress.com/
Saturday, April 10, 2010
शायद इसी लिये!
तेरे थरथराते कांपते होठों पर,
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!
पर,
तभी बेसाख्ता याद आया
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!
मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के
तू भी,
कभी तो!
मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद
अपने आंसुओं की गिरा दे,
पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में
घी डालने से!
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!
पर,
तभी बेसाख्ता याद आया
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!
मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के
तू भी,
कभी तो!
मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद
अपने आंसुओं की गिरा दे,
पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में
घी डालने से!
Wednesday, April 7, 2010
वफ़ा की नुमाइश!
कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|
जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों न जज़बातो, का सौदा करे कोई!
खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई|
*******************************************
आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में और भी Relevant हो जाता है!
सच गुनाह का!
तेरा काजल जो
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
Friday, April 2, 2010
कडवी कडवी !!!
लहू अब अश्क में बहने लगा है,
नफ़रतें ख़्वाब में आने लगीं हैं,
मरुस्थल से जिसे घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं,
हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है
चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें
ऋतुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.
बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है.
नफ़रतें ख़्वाब में आने लगीं हैं,
मरुस्थल से जिसे घर में जगह दी
नागफ़नी फ़ूलों को खाने लगीं हैं,
हमारी फ़ितरत का ही असर है,
चांदनी भी तन को जलाने लगी है
चलो अब चांद तारो को भी बिगाडें
ऋतुयें धरती से मूंह चुराने लगीं है.
बात कडवी है तो कडवी ही लगेगी,
सच्ची बातें किसको सुहानी लगीं है.
Friday, March 26, 2010
कातिल की बात !
मैं कभी करता नहीं दिल की भी बात,
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
Monday, March 22, 2010
तलाश खुद अपनी!
इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।
मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!
Thursday, March 11, 2010
ख्वाहिश!
तेरे मेरे
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.
मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,
मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे
खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,
दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,
क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.
मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,
मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे
खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,
दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,
क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|
Thursday, March 4, 2010
कल्कि और कलियुग!
बहुत सोचने पर भी ,समझ में तो नहीं आया,
पर मानना पडा कि,
काल कालान्तर से कुछ भी नहीं बदला,
मानव के आचरण में,
और न हीं देव और देव नुमा प्राणिओं के,
पहले इन्द्र पाला करते थे,
मेनका,उर्वषि आदि,
विश्वामित्र आदि को भ्रष्ट करने के लिये,
और वो भी निज स्वार्थवश,
और अब स्वंयभू विश्वामित्र आदि,
पाल रहे हैं,
मेनका,उर्वषि..........आदि, आदि
तथा कथित इन्द्र नुमा हस्तियों को वश मे करने के लिये.
बदला क्या....?
सिर्फ़ काल,वेश, परिवेश,और परिस्थितियां,
मानव आचरण तब भी, अब भी........
कपट,झूठं,लालच, आडम्बर,वासना, हिंसा और..
नश्वर एंव नापाक होते हुये भी,
स्वंयभू "भगवान" बन जाने की कुत्सित अभिलाषा.......
Saturday, February 27, 2010
दर्द की मिकदार!एक बार फ़िर से!
मौला, ना कर मेरी हर मुराद तू पूरी,
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो,ये करना होगा.
मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.
तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.
होली के मौके पर खास !
रंग चेहरे पे कई तुमने सजा कर देखे,
नूर लाने के लिये,रंग रूह का बदलना होगा.
Sunday, February 14, 2010
सच और सियासत!
कुछ लफ़्ज़ मेरे इतने असरदार हो गय्रे,
चेहरे तमाम लोगो के अखबार हो गये.
मक्कारी का ज़माने में ऐसा चलन हुया,
चमचे तमाम शहर की सरकार हो गये.
यूं ’कडवे सच’ से ज़िन्दगी में रूबरू हुये,
रिश्ते तमाम तब से बस किरदार हो गये.
चंद दोस्तों ने वफ़ा की ऐसी मिसाल दी,
कि दुश्मनों के पैतरे बेकार हो गये.
Thursday, February 11, 2010
इंसान होने की सजा!
मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
Wednesday, February 3, 2010
इकबाले ज़ुर्म!
जब मै आता हूं कहने पे,तो सब छोड के कह देता हूं,
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,
दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.
मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.
भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं.
वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन तोड के कह देता हूं.
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,
दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.
मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.
भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं.
वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन तोड के कह देता हूं.
Friday, January 29, 2010
मुगाल्ते
मै नहीं मेरा अक्स होगा,
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
Sunday, January 24, 2010
मजाक सच में
हालात से लोग मजबूर हो गये है,
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.
इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है
रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है
हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.
इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है
रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है
हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.
Friday, January 15, 2010
अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !
आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा.
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
Thursday, December 31, 2009
नया साल! सच में!
ज़िन्दगी का नया सिलसिला कीजिये,
भूल कर रंज़-ओ-गम मुस्कुरा दीजिये.
लोग अच्छे बुरे हर तरीके के हैं,
खोल कर दिल न सबसे मिला कीजिये.
तआरुफ़-ओ-तकरार करने से है,
ये करा कीजिये, वो न करा कीजिये.
शेर कह्ता हूं फ़िर एक नये रंग का
मुझको यादों का नश्तर चुभा दीजिये.
साल आने को है, साल जाने को है,
खास मौका है इसका मज़ा लीजिये.
Friday, December 11, 2009
दर्द का पता!
कल रात मेरी जीवन साथी संजीदा हो गईं,
मेरी कविताएं पढते हुये,
उसने पूछा,
क्या सच में!
आप दर्द को इतनी शिद्द्त से महसूस करते हैं?
या सिर्फ़ फ़लसफ़े के लिये मुद्दे चुन लेतें हैं!
दर्द की झलक जो आपकी बातों में है,
वो आई कहां से?
मैने भी खूबसूरती से टालते हुये कहा,
दर्द खजाने हैं,इन्हें छुपा कर रखता हूं,
कभी दिल में,कभी दिल की गहराईओं में
खजानों का पता गर सब को बताता,
तो अब तक कब का लुट गया होता!
मेरे किसी दोस्त ने कभी बहुत ही सही कहा था!
’ये फ़कीरी लाख नियामत है, संभाल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले!’
Tuesday, December 8, 2009
कोपन्हेगन के संदर्भ में!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
Wednesday, December 2, 2009
तीरगी का सच!
Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :
इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.
मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.
चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.
लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से.
और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:
ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.
दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.
Wednesday, November 25, 2009
आम ऒ खास का सच!
मेरा ये विश्वास के मैं एक आम आदमी हूं,
अब गहरे तक घर कर गया है,
ऐसा नहीं के पहले मैं ये नहीं जानता था,
पर जब तब खास बनने की फ़िराक में,
या यूं कहिये सनक में रह्ता था,
यह कोई आर्कमिडीज़ का सिधांत नही है,
कि पानी के टब में बैठे और मिल गया!
मैने सतत प्रयास से ये जाना है कि,
किसी आदमी के लिये थोडा थोडा सा,
"आम आदमी" बने रहना,
नितांत ज़रूरी है!
क्यों कि खास बनने की अभिलाषा और प्रयास में,
’आदमी ’ का ’आदमी’ रह जाना भी
कभी कभी मुश्किल हो जाता है,
आप नहीं मानते?
तो ज़रा सोच कर बतायें!
’कसाब’,’कोडा’,’अम्बानी’,’ओसामा’,..........
’हिटलर’ .......... ......... ........
..... ......
आदि आदि,में कुछ समान न भी हो
तो भी,
ये आम आदमी तो नहीं ही कहलायेंगे,
आप चाहे इन्हे खास कहें न कहें!
पर!
ये सभी, कुछ न कुछ गवां ज़रुर चुके हैं ,
कोई मानवता,
कोई सामाजिकता,
कोई प्रेम,
कोई सरलता,
कोई कोई तो पूरी की पूरी इंसानियत!
और ये भटकाव शुरू होता है,
कुछ खास कर गुज़रने के "अनियन्त्रित" प्रयास से,
और ऐसे प्रयास कब नियन्त्रण के बाहर
हो जाते हैं पता नहीं चलता!
इनमें से कुछ की achivement लिस्ट भी
खासी लम्बी या impressive हो सकती है,
पर चश्मा ज़रा इन्सानियत का लगा कर देखिये तो सही,
मेरी बात में त्तर्क नज़र आयेगा!
Sunday, November 15, 2009
बेवफ़ाई का सच!
कल मुझे इक खबर ने दुखी कर दिया!
मेरे दोस्त का तलाक हो गया!
आम बात(खबर) है ये आज कल,
पर मेरे दुखी होने की वजह थी,
दोनों ’तलाक शुदा’ व्यक्ति मेरे दोस्त रहे थे!
एक (उनकी) शादी से पहले और एक शादी के बाद!
हांलाकि मैं तलाक की वजह नहीं था!
पर अफ़सोस कि बात ये के
काश उन दोनों मे से ,
कोई एक तो ऐसा होता,
जो मोहब्बत की कद्र कभी तो समझता!
Thursday, November 12, 2009
तन्हाई का सच!
कल रात सवा ग्यारह बजे,
मैं अचानक तन्हा हो गया!
एक दम तन्हा!
ऐसा नहीं के इस से पहले,
मुझे कभी मेरी तन्हाई का अहसास नहीं था!
पर कल रात मैने एक गलती की!
अपने Mobile की phone book को browse करने लगा!
दिल में आया कि देखूं कौन कौन वो लोग हैं,
जिन्हें गर अभी call करूं तो,
बिन अलसाये,बिन गरियाये (दिल में)
मेरी call लेगें (और खुश होगें!)
सच कह्ता हूं!
मैने इस से ज्यादा तन्हाई कभी मह्सूस नहीं की!
क्यों के एक भी Contact ऐसा नहीं था जिसे,
मैं बेधडक call कर सकूं,
एक Thursday evening को!
(कल एक working day है!)
सिर्फ़ ये कहने के लिये!
बहुत दिन हुये ’तुम से बात नहीं हुई’
और वो खुश हो के कहे,
"अच्छा लगा के तुमने याद किया!"
(झूंठ ही सही!!!!)
"सच में" कितना तन्हा हूं मैं!
और आप?
Thursday, November 5, 2009
दर्द का सच!
छुपा लाख तू जो गुजरी है हम दोनो में,
तेरा चेहरा तेरे हर सच का पता देता है.
पाक पलकों को तेरी,मैंने तो छूआ भी नहीं,
कैसा दिलबर है,तू जगने की सज़ा देता है.
मेरी कोशिश है,मैं आज के साथ जी पाऊं,
मेरा माज़ी है के, मेरा दर्द जगा देता है.
ये मोहब्ब्त है, इसे खेल न समझो यारों
दर्द इश्क का बढने पे मज़ा देता है.
दर्द देता है मज़ा,कभी अश्क मज़ा देता है,
ये तो इन्सान है,जो अच्छों को भुला देता है.
Wednesday, October 28, 2009
सच गुनाह का!
तेरा काजल जो
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
Friday, October 23, 2009
सच बे उन्वान!
पलकें नम थी मेरी,
घास पे शबनम की तरह,
तब्बसुम लब पे सजा था,
किसी मरियम की तरह.
वो मुझे छोड गया ,
संगे राह समझ.
मै उसके साथ चला था,
हरदम, हमकदम की तरह.
वफ़ा मेरी कभी
रास न आई उसको,
वो ज़ुल्म करता रहा,
मुझ पे बेरहम की तरह.
फ़रिस्ता मुझको समझ के ,
वो आज़माता रहा,
मैं तो कमज़ोर सा इंसान
था आदम की तरह.
ख्वाब जो देके गया ,
वो बहुत हंसी है मगर,
तमाम उम्र कटी मेरी
शबे गम की तरह.
Thursday, October 15, 2009
"झूंठ" सच में!
उसकी तस्वीर के शीशे से
गर्द को साफ़ किया मैने,
उंगली को ज़ुबान से नम कर के,
पर ’वो’ नहीं बोली!
मेरी आंखे नम थीं,
पर ’वो’ नहीं बोली,
शायद वो बोलती,
गर वो तस्वीर न होती,
या शायद
गर वो मेरी तरह
गम ज़दा होती
इश्क में!
वो नहीं थी!
न तस्वीर,
न तस्सवुर,
एक अहसास था,
जिसे मैने ज़िन्दगी से भी ज़्यादा जीने की कोशिश की थी!
टूट गया!
क्यो कि
ख्वाब गर जो न टूटे,
तो कहां जायेंगे?
जिन के दिल टूटे हैं
वो खुद को भला क्या समझायेंगे!
शायद ये के:
"टूट जायेंगे तो किरचों के सिवा क्या देगें!
ख्वाब शीशे के हैं ज़ख्मों के सिवा क्या देंगें,"
गर्द को साफ़ किया मैने,
उंगली को ज़ुबान से नम कर के,
पर ’वो’ नहीं बोली!
मेरी आंखे नम थीं,
पर ’वो’ नहीं बोली,
शायद वो बोलती,
गर वो तस्वीर न होती,
या शायद
गर वो मेरी तरह
गम ज़दा होती
इश्क में!
वो नहीं थी!
न तस्वीर,
न तस्सवुर,
एक अहसास था,
जिसे मैने ज़िन्दगी से भी ज़्यादा जीने की कोशिश की थी!
टूट गया!
क्यो कि
ख्वाब गर जो न टूटे,
तो कहां जायेंगे?
जिन के दिल टूटे हैं
वो खुद को भला क्या समझायेंगे!
शायद ये के:
"टूट जायेंगे तो किरचों के सिवा क्या देगें!
ख्वाब शीशे के हैं ज़ख्मों के सिवा क्या देंगें,"
Wednesday, October 14, 2009
बस कह दिया!
चमन को हम साजाये बैठे हैं,
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.
तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.
सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं
फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.
मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.
सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.
तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.
सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं
फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.
मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.
सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.
Saturday, October 10, 2009
मानव योनि!
चौरासी लाख योनिओं में,
शायद ’प्रेत’योनि भी एक है!
या शायद नहीं है?
पता नही!
पर मैं ये जानता हूं कि,
हर देह धारी मनुष्य
प्रेत योनी का सुख उठा सकता है,
अरे आप तो हैरान हो गये,
प्रेत योनि और सुख?
जी हां!
दर असल ये समझना ज़रूरी है कि,
मानव योनि के कौन कौन से कष्ट है,
जो प्रेत योनि में नहीं होते.
सम्वेदना,लगाव,
स्नेह,विरह,कामना,
ईर्ष्या,स्पर्धा,लालसा,
भय,आवेग,करुणा,
आकांछा,और हां
"सब कुछ सच सच जान लेने की ख्वाहिश"!
ये कुछ ऐसी अजीबो गरीब भावनायें हैं,
जो इन्सान के कष्ट का कारण होती है,
प्रेत योनि में ये दुख कहां,
तभी तो मानव देह धारी हो कर भी,
प्रेत योनि की प्रसंशा करते हुये,
उसी की प्राप्ति की ओर अग्रसर हूं!
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