ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Friday, March 26, 2010
कातिल की बात !
मैं कभी करता नहीं दिल की भी बात,
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
पूछते हो मुझसे क्यूं,महफ़िल की बात?
दिलनशीं बुतो की परस्तिश तुम करो,
हम उठायेगें, यहां संगदिल की बात।
ज़ालिम-ओ-हाकिम यहां सब एक हैं,
कौन सुनता है यहां बिस्मिल की बात!
कत्ल मेरा क्यों हुया? तुम ही कहो,
मैं जानूं!क्या थी,भला कातिल की बात?
लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।
Monday, March 22, 2010
तलाश खुद अपनी!
इन्तेहा-ए-उम्मीदे-वफ़ा क्या खूब!
जागी आंखों ने सपने सजा लिये।
मौत की बेरुखी, सज़र-ए-इन्सानियत में,
अधमरे लोग हैं,गिद्दों ने पर फ़ैला लिये।
चाहा था दुश्मन को दें पैगाम-ए-अमन
दोस्तों ने ही अपने खंजर पैना लिये।
भीड में कैसे मिलूंगा, तुमको मैं?
ढूंडते हो खुद को ही,तुम आईना लिये!
Thursday, March 11, 2010
ख्वाहिश!
तेरे मेरे
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.
मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,
मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे
खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,
दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,
क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|
शाम सवेरे,
कभी उजाले
कभी अंधेरे.
मन मेरा,
ज्यूं ढलता सूरज
गहरे बादल,
गेसू तेरे,
मैं एकाकी
तू भी तन्हा
यादों में आ
साथी मेरे
खुली आंख से
सपना जैसा,
तेरी आंख में
आंसू मेरे,
दुनियां ज़ालिम,
सूखे उपवन
दूर बसायें
अपने डेरे,
क्या जादू है?
मै न जानूं!
नींदें मेरी,
सपने तेरे|
Thursday, March 4, 2010
कल्कि और कलियुग!
बहुत सोचने पर भी ,समझ में तो नहीं आया,
पर मानना पडा कि,
काल कालान्तर से कुछ भी नहीं बदला,
मानव के आचरण में,
और न हीं देव और देव नुमा प्राणिओं के,
पहले इन्द्र पाला करते थे,
मेनका,उर्वषि आदि,
विश्वामित्र आदि को भ्रष्ट करने के लिये,
और वो भी निज स्वार्थवश,
और अब स्वंयभू विश्वामित्र आदि,
पाल रहे हैं,
मेनका,उर्वषि..........आदि, आदि
तथा कथित इन्द्र नुमा हस्तियों को वश मे करने के लिये.
बदला क्या....?
सिर्फ़ काल,वेश, परिवेश,और परिस्थितियां,
मानव आचरण तब भी, अब भी........
कपट,झूठं,लालच, आडम्बर,वासना, हिंसा और..
नश्वर एंव नापाक होते हुये भी,
स्वंयभू "भगवान" बन जाने की कुत्सित अभिलाषा.......
Saturday, February 27, 2010
दर्द की मिकदार!एक बार फ़िर से!
मौला, ना कर मेरी हर मुराद तू पूरी,
जहाँ से दर्द की मिक़दार क़म हो,ये करना होगा.
मसीहा कौन है ,और कौन यहाँ रह्बर है,
हर इंसान को इस राह पे, अकेले ही चलना होगा.
तेज़ हवाएँ भी हैं सर्द ,और अंधेरा भी घना,
शमा चाहे के नही उसे हर हाल में जलना होगा.
होली के मौके पर खास !
रंग चेहरे पे कई तुमने सजा कर देखे,
नूर लाने के लिये,रंग रूह का बदलना होगा.
Sunday, February 14, 2010
सच और सियासत!
कुछ लफ़्ज़ मेरे इतने असरदार हो गय्रे,
चेहरे तमाम लोगो के अखबार हो गये.
मक्कारी का ज़माने में ऐसा चलन हुया,
चमचे तमाम शहर की सरकार हो गये.
यूं ’कडवे सच’ से ज़िन्दगी में रूबरू हुये,
रिश्ते तमाम तब से बस किरदार हो गये.
चंद दोस्तों ने वफ़ा की ऐसी मिसाल दी,
कि दुश्मनों के पैतरे बेकार हो गये.
Thursday, February 11, 2010
इंसान होने की सजा!
मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
Wednesday, February 3, 2010
इकबाले ज़ुर्म!
जब मै आता हूं कहने पे,तो सब छोड के कह देता हूं,
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,
दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.
मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.
भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं.
वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन तोड के कह देता हूं.
सच न कहने की कसम है पर तोड के कह देता हूं,
दिल है पत्थर का पिघल जाये मेरी बात से तो ठीक,
मै भी पक्का हूं इबादत का,सनम तोड के कह देता हूं.
मै तो सच कहता हूं तारीफ़-ओ-खुशामत मेरी कौन करे,
सच अगर बात हो तो सारे भरम तोड के कह देता हूं.
भरोसा उठ गया है सारे मुन्सिफ़-ओ-वकीलो से,
मै सज़ायाफ़्ता हूं ये बात कलम तोड के कह देता हूं.
वो होगें और ’इल्म के सौदागर’ जो डरते है रुसवाई से,
मै ज़ूनूनी हूं ज़माने के चलन तोड के कह देता हूं.
Friday, January 29, 2010
मुगाल्ते
मै नहीं मेरा अक्स होगा,
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
जिस्म नही कोई शक्स होगा.
ख्वाहिशें बेकार की है,
पानी पे उभरा अक्स होगा.
ज़िन्दगी अब और क्या हो,
आंखों में तेरा नक्श होगा.
गल्तियां मेरी हज़ारों,
तू ही खता बख्श होगा.
Sunday, January 24, 2010
मजाक सच में
हालात से लोग मजबूर हो गये है,
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.
इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है
रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है
हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.
निवाले उनके मुंह से दूर हो गये है.
इस कदर इस बात पे न ज़ोर डालो ,
नज़र दुरुस्त है,चश्मे चूर हो गये है
रोशनी ही बेच दी रोटी की खातिर,
तमाम चराग यहां बे नूर हो गये है
हाकिमों ने खुद ही आंखें मींच ली है,
ये सारे कातिल बे कूसूर हो गये है.
Friday, January 15, 2010
अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !
आबे दरिया हूं मैं,ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ि्तरत भी है के, लौट नहीं आउंगा.
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बदद्दूआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, अश्क है एक सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
Thursday, December 31, 2009
नया साल! सच में!
ज़िन्दगी का नया सिलसिला कीजिये,
भूल कर रंज़-ओ-गम मुस्कुरा दीजिये.
लोग अच्छे बुरे हर तरीके के हैं,
खोल कर दिल न सबसे मिला कीजिये.
तआरुफ़-ओ-तकरार करने से है,
ये करा कीजिये, वो न करा कीजिये.
शेर कह्ता हूं फ़िर एक नये रंग का
मुझको यादों का नश्तर चुभा दीजिये.
साल आने को है, साल जाने को है,
खास मौका है इसका मज़ा लीजिये.
Friday, December 11, 2009
दर्द का पता!
कल रात मेरी जीवन साथी संजीदा हो गईं,
मेरी कविताएं पढते हुये,
उसने पूछा,
क्या सच में!
आप दर्द को इतनी शिद्द्त से महसूस करते हैं?
या सिर्फ़ फ़लसफ़े के लिये मुद्दे चुन लेतें हैं!
दर्द की झलक जो आपकी बातों में है,
वो आई कहां से?
मैने भी खूबसूरती से टालते हुये कहा,
दर्द खजाने हैं,इन्हें छुपा कर रखता हूं,
कभी दिल में,कभी दिल की गहराईओं में
खजानों का पता गर सब को बताता,
तो अब तक कब का लुट गया होता!
मेरे किसी दोस्त ने कभी बहुत ही सही कहा था!
’ये फ़कीरी लाख नियामत है, संभाल वरना,
इसे भी लूट के ले जायेंगें ज़माने वाले!’
Tuesday, December 8, 2009
कोपन्हेगन के संदर्भ में!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
Wednesday, December 2, 2009
तीरगी का सच!
Little late for anniversary of 26/11 notwithstanding रचना आप के सामने hai :
इस तीरगी और दर्द से, कैसे लड़ेंगे हम,
मौला तू ,रास्ता दिखा अपने ज़माल से.
मासूम लफ्ज़ कैसे, मसर्रत अता करें,
जब भेड़िया पुकारे मेमने की खाल से.
चारागर हालात मेरे, अच्छे बता गया,
कुछ नये ज़ख़्म मिले हैं मुझे गुज़रे साल से.
लिखता नही हूँ शेर मैं, अब इस ख़याल से,
किसको है वास्ता यहाँ, अब मेरे हाल से.
और ये दो शेर ज़रा मुक़्तलिफ रंग के:
ऐसा नहीं के मुझको तेरी याद ही ना हो,
पर बेरूख़ी सी होती है,अब तेरे ख़याल से.
दो अश्क़ उसके पोंछ के क्या हासिल हुया मुझे?
खुश्बू नही गयी है,अब तक़ रूमाल से.
Wednesday, November 25, 2009
आम ऒ खास का सच!
मेरा ये विश्वास के मैं एक आम आदमी हूं,
अब गहरे तक घर कर गया है,
ऐसा नहीं के पहले मैं ये नहीं जानता था,
पर जब तब खास बनने की फ़िराक में,
या यूं कहिये सनक में रह्ता था,
यह कोई आर्कमिडीज़ का सिधांत नही है,
कि पानी के टब में बैठे और मिल गया!
मैने सतत प्रयास से ये जाना है कि,
किसी आदमी के लिये थोडा थोडा सा,
"आम आदमी" बने रहना,
नितांत ज़रूरी है!
क्यों कि खास बनने की अभिलाषा और प्रयास में,
’आदमी ’ का ’आदमी’ रह जाना भी
कभी कभी मुश्किल हो जाता है,
आप नहीं मानते?
तो ज़रा सोच कर बतायें!
’कसाब’,’कोडा’,’अम्बानी’,’ओसामा’,..........
’हिटलर’ .......... ......... ........
..... ......
आदि आदि,में कुछ समान न भी हो
तो भी,
ये आम आदमी तो नहीं ही कहलायेंगे,
आप चाहे इन्हे खास कहें न कहें!
पर!
ये सभी, कुछ न कुछ गवां ज़रुर चुके हैं ,
कोई मानवता,
कोई सामाजिकता,
कोई प्रेम,
कोई सरलता,
कोई कोई तो पूरी की पूरी इंसानियत!
और ये भटकाव शुरू होता है,
कुछ खास कर गुज़रने के "अनियन्त्रित" प्रयास से,
और ऐसे प्रयास कब नियन्त्रण के बाहर
हो जाते हैं पता नहीं चलता!
इनमें से कुछ की achivement लिस्ट भी
खासी लम्बी या impressive हो सकती है,
पर चश्मा ज़रा इन्सानियत का लगा कर देखिये तो सही,
मेरी बात में त्तर्क नज़र आयेगा!
Sunday, November 15, 2009
बेवफ़ाई का सच!
कल मुझे इक खबर ने दुखी कर दिया!
मेरे दोस्त का तलाक हो गया!
आम बात(खबर) है ये आज कल,
पर मेरे दुखी होने की वजह थी,
दोनों ’तलाक शुदा’ व्यक्ति मेरे दोस्त रहे थे!
एक (उनकी) शादी से पहले और एक शादी के बाद!
हांलाकि मैं तलाक की वजह नहीं था!
पर अफ़सोस कि बात ये के
काश उन दोनों मे से ,
कोई एक तो ऐसा होता,
जो मोहब्बत की कद्र कभी तो समझता!
Thursday, November 12, 2009
तन्हाई का सच!
कल रात सवा ग्यारह बजे,
मैं अचानक तन्हा हो गया!
एक दम तन्हा!
ऐसा नहीं के इस से पहले,
मुझे कभी मेरी तन्हाई का अहसास नहीं था!
पर कल रात मैने एक गलती की!
अपने Mobile की phone book को browse करने लगा!
दिल में आया कि देखूं कौन कौन वो लोग हैं,
जिन्हें गर अभी call करूं तो,
बिन अलसाये,बिन गरियाये (दिल में)
मेरी call लेगें (और खुश होगें!)
सच कह्ता हूं!
मैने इस से ज्यादा तन्हाई कभी मह्सूस नहीं की!
क्यों के एक भी Contact ऐसा नहीं था जिसे,
मैं बेधडक call कर सकूं,
एक Thursday evening को!
(कल एक working day है!)
सिर्फ़ ये कहने के लिये!
बहुत दिन हुये ’तुम से बात नहीं हुई’
और वो खुश हो के कहे,
"अच्छा लगा के तुमने याद किया!"
(झूंठ ही सही!!!!)
"सच में" कितना तन्हा हूं मैं!
और आप?
Thursday, November 5, 2009
दर्द का सच!
छुपा लाख तू जो गुजरी है हम दोनो में,
तेरा चेहरा तेरे हर सच का पता देता है.
पाक पलकों को तेरी,मैंने तो छूआ भी नहीं,
कैसा दिलबर है,तू जगने की सज़ा देता है.
मेरी कोशिश है,मैं आज के साथ जी पाऊं,
मेरा माज़ी है के, मेरा दर्द जगा देता है.
ये मोहब्ब्त है, इसे खेल न समझो यारों
दर्द इश्क का बढने पे मज़ा देता है.
दर्द देता है मज़ा,कभी अश्क मज़ा देता है,
ये तो इन्सान है,जो अच्छों को भुला देता है.
Wednesday, October 28, 2009
सच गुनाह का!
तेरा काजल जो
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.
क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!
क्या दर्द के लम्हों से मसरर्त
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,
गर नही!तो,
’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’
Friday, October 23, 2009
सच बे उन्वान!
पलकें नम थी मेरी,
घास पे शबनम की तरह,
तब्बसुम लब पे सजा था,
किसी मरियम की तरह.
वो मुझे छोड गया ,
संगे राह समझ.
मै उसके साथ चला था,
हरदम, हमकदम की तरह.
वफ़ा मेरी कभी
रास न आई उसको,
वो ज़ुल्म करता रहा,
मुझ पे बेरहम की तरह.
फ़रिस्ता मुझको समझ के ,
वो आज़माता रहा,
मैं तो कमज़ोर सा इंसान
था आदम की तरह.
ख्वाब जो देके गया ,
वो बहुत हंसी है मगर,
तमाम उम्र कटी मेरी
शबे गम की तरह.
Thursday, October 15, 2009
"झूंठ" सच में!
उसकी तस्वीर के शीशे से
गर्द को साफ़ किया मैने,
उंगली को ज़ुबान से नम कर के,
पर ’वो’ नहीं बोली!
मेरी आंखे नम थीं,
पर ’वो’ नहीं बोली,
शायद वो बोलती,
गर वो तस्वीर न होती,
या शायद
गर वो मेरी तरह
गम ज़दा होती
इश्क में!
वो नहीं थी!
न तस्वीर,
न तस्सवुर,
एक अहसास था,
जिसे मैने ज़िन्दगी से भी ज़्यादा जीने की कोशिश की थी!
टूट गया!
क्यो कि
ख्वाब गर जो न टूटे,
तो कहां जायेंगे?
जिन के दिल टूटे हैं
वो खुद को भला क्या समझायेंगे!
शायद ये के:
"टूट जायेंगे तो किरचों के सिवा क्या देगें!
ख्वाब शीशे के हैं ज़ख्मों के सिवा क्या देंगें,"
गर्द को साफ़ किया मैने,
उंगली को ज़ुबान से नम कर के,
पर ’वो’ नहीं बोली!
मेरी आंखे नम थीं,
पर ’वो’ नहीं बोली,
शायद वो बोलती,
गर वो तस्वीर न होती,
या शायद
गर वो मेरी तरह
गम ज़दा होती
इश्क में!
वो नहीं थी!
न तस्वीर,
न तस्सवुर,
एक अहसास था,
जिसे मैने ज़िन्दगी से भी ज़्यादा जीने की कोशिश की थी!
टूट गया!
क्यो कि
ख्वाब गर जो न टूटे,
तो कहां जायेंगे?
जिन के दिल टूटे हैं
वो खुद को भला क्या समझायेंगे!
शायद ये के:
"टूट जायेंगे तो किरचों के सिवा क्या देगें!
ख्वाब शीशे के हैं ज़ख्मों के सिवा क्या देंगें,"
Wednesday, October 14, 2009
बस कह दिया!
चमन को हम साजाये बैठे हैं,
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.
तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.
सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं
फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.
मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.
सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.
जान की बाज़ी लगाये बैठे हैं.
तुम को मालूम ही नहीं शायद,
दुश्मन नज़रे गडाये बैठे हैं.
सलवटें बिस्तरों पे रहे कायम,
नींदे तो हम गवांये बैठें हैं
फ़ूल लाये हो तो गैर को दे दो,
हम तो दामन जलाये बैठे हैं.
मयकदे जाते तो गुनाह भी था,
बिन पिये सुधबुध गवांये बैठे हैं.
सच न कह्ता तो शायद बेह्तर था,
सुन के सच मूंह फ़ुलाये बैठे हैं.
Saturday, October 10, 2009
मानव योनि!
चौरासी लाख योनिओं में,
शायद ’प्रेत’योनि भी एक है!
या शायद नहीं है?
पता नही!
पर मैं ये जानता हूं कि,
हर देह धारी मनुष्य
प्रेत योनी का सुख उठा सकता है,
अरे आप तो हैरान हो गये,
प्रेत योनि और सुख?
जी हां!
दर असल ये समझना ज़रूरी है कि,
मानव योनि के कौन कौन से कष्ट है,
जो प्रेत योनि में नहीं होते.
सम्वेदना,लगाव,
स्नेह,विरह,कामना,
ईर्ष्या,स्पर्धा,लालसा,
भय,आवेग,करुणा,
आकांछा,और हां
"सब कुछ सच सच जान लेने की ख्वाहिश"!
ये कुछ ऐसी अजीबो गरीब भावनायें हैं,
जो इन्सान के कष्ट का कारण होती है,
प्रेत योनि में ये दुख कहां,
तभी तो मानव देह धारी हो कर भी,
प्रेत योनि की प्रसंशा करते हुये,
उसी की प्राप्ति की ओर अग्रसर हूं!
Monday, September 21, 2009
दरख्त का सच!
मैने एक कोमल अंकुर से,
मजबूत दरख्त होने तक का
सफ़र तय किया है.
जब मैं पौधा था,
तो मेरी शाखों पे,
परिन्दे घोंसला बना ,कर
ज़िन्दगी को पर देते थे.
नये मौसम, तांबई रंग की
कोपलों को हरी पत्तियों में
बदल कर उम्मीद की हरियाली फ़ैलाते थे.
मैने कई प्रेमियों को अपनी घनी छांव के नीचे
जीवनपर्यंत एक दूजे का साथ देने की कसम खाते सुना है.
पौधे से दरख्त बनना एक अजीब अनुभव है!
मेरे "पौधे पन" ने मुझे सिखाया था,
तेज़ आंधी में मस्ती से झूमना,
बरसात में लोगो को पनाह देना,
धूप में छांव पसार कर थकान मिटाना.
अब जब से मैं दरख्त हो गया हूं,
ज़िंदगी बदल सी गई है.
मेरा रूप ही नहीं शायद,
मेरा चरित्र भी बदल गया है.
नये मौसम अब कम ही इधर आतें है,
मेरे लगभग सूखे तने की खोखरों में,
कई विषधर अपना ठिकाना बना कर
पंछियों के अंडो की तलाश में,
जीभ लपलपाते मेरी छाती पर लोटते रहते हैं.
आते जाते पथिक
मेरी छाया से ज्यादा,मेरे तने की मोटाई आंक कर,
अनुमान लगाते है कि मै,
कितने क्यूबिक ’टिम्बर’ बन सकता हूं?
कुछ एक तो ऐसे ज़ालिम हैं,
जो मुझे ’पल्प’ में बदल कर,
मुझे बेजान कागज़ बना देने की जुगत में हैं.
कभी कभी लगता है,
इससे पहले कि, कोई तूफ़ान मेरी,
कमज़ोर पड गई जडों को उखाड फ़ेकें,
या कोई आसमानी बिजली मेरे
तने को जला डाले,
और मै सिर्फ़ चिता का सामान बन कर रह जाऊं,
कागज़ में बदल जाना ही ठीक है.
शायद कोई ऐसा विचार,
जो ज़िंदगी के माने समझा सके,
कभी तो मुझ पर लिखा जाये,
और मैं भी ज़िन्दगी के
उद्देश्य की यात्रा का हिस्सा हो सकूं.
और वैसे भी, देखो न,
आज कल ’LG,Samsung और Voltas
के ज़माने में ठंडी घनी छांव की ज़रूरत किसको है?
Friday, August 28, 2009
सच है ना?
अक्स अब धुंधला नज़र आने लगा है.
वख्त अब थोडा सा ही बचा है,
सूरज पश्चिम की तरफ़ जाने लगा है.
दुश्मनो को आओ अब हम माफ़ कर दें,
दोस्त मेरा, मेरे घर आने लगा है.
क्यों भला शैतान पाये बद्दुयाएं,
फ़रिस्ता भी तो साज़िशें रचाने लगा है.
क्यों भला हम रिन्द को तोहमत लगाये,
साकी भी तो जाम छ्लकाने लगा है.
बाढ सूखे से तुम्हें क्या लेना देना,
SENSEX तो अब ऊपर जाने लगा है.
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"सच में" के सुधी पाठकों और अपने चाहने वालों से कुछ समय के लिये ,इस माध्यम (Blog 'sachmein') पर मुखातिब नहीं हो पाऊंगा.आशा है आप सब की दुआएं जल्द ही मुझे वापस आने के लिये हालात बना देंगी.तब तक के लिये,take care & Happy Bloging!
_Ktheleo
Tuesday, August 25, 2009
फ़िर से पढे 'ताल्लुकात का सच'!
मुझसे कह्ते तो सही ,जो रूठना था,
मुझे भी , झंझटों से छूटना था.
तमाम अक्स धुन्धले से नज़र आने लगे थे,
आईना था पुराना, टूटना था.
बात सीधी थी, मगर कह्ता मै कैसे,
कहता या न कहता, दिल तो टूटना था.
मैं लाया फूल ,तुम नाराज़ ही थे,
मैं लाता चांद, तुम्हें तो रूठना था.
याद तुमको अगर आती भी मेरी,
था दरिया का किनारा , छूटना था.
Wednesday, August 19, 2009
वफ़ा की दुआ!
ख्याब शीशे के हैं, किर्चों के सिवा क्या देगें,
टूट जायेंगें तो, ज़ख्मों के सिवा क्या देगें
टूट जायेंगें तो, ज़ख्मों के सिवा क्या देगें
ये तो अपने ही मसलो मे उलझें है अभी
खुद दर्द के मारे है, वो मुझको दुआ क्या देगें.
सारे ज़माने में,मशहूर है बेवफ़ाई उनकी,
संगदिल लोग है,ये हम को वफ़ा क्या देगें .
Tuesday, August 11, 2009
इश्क का सच!
इन्तेज़ार तेरा किया,मैने ता उम्र मगर,
मौत पे कब किसी का इख्तियार होता है!
तुम मिले न मुझे,न मैं ही तेरा हो पाया,
सच मोहब्बत का है,ऐसे भी प्यार होता है.
किसे फ़ुरसत है मुझे कौन अब तसल्ली दे,
इश्क के बर्बादों का कोई गमगुसार होता है?
Monday, August 3, 2009
मौसम
लीजिये मौसम सुहाने आ गये,
हुस्न वालो के ज़माने आ गये
बादलों का पानी कहीं न कम पडे,
हम अपने आंसू मिलाने आ गये.
मौत भी मेरी,फ़साना बन गयी,
दुश्मन-ऐ-जां , आंसू बहाने आ गये.
चूक कैसे जाते सारे दोस्त मेरे,
वो भी दिल मेरा दुखाने आ गये.
गुलों को देख कर उकता गये थे,
खार दामन को सज़ाने आ गये.
यार के दामन से जी जब भर गया,
गैर क्यूं अपना बनाने आ गये?
दाद दी गज़लों पे मेरी उसने जब,
यूं लगा गुज़रे ज़माने आ गये.
Monday, July 27, 2009
गर्द-ए-सफ़र-ए- इश्क!
गर्द-ए-सफ़र-ए-इश्क वो लाया है,
खाक कहता है,तू,उसे जो सरमाया है.
क्यों कर सजे तब्बसुम अब लब पर तेरे,
संगदिल से तू ने क्यूं कर दिल लगाया है.
कोशिश भी न करना मसर्रत-ए-दीदार की,
कभी था तेरा,वो बुते हुश्न अब पराया है.
ज़िक्र-ए-वफ़ा भी मेरा क्यूं गुनाह हो गया,
उसकी बेवाफ़ाई को,मैने जां दे के भी निभाया है.
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