ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Monday, January 6, 2014
Sunday, December 1, 2013
इश्क एक हादसा
"इश्क एक हादसा!
एक दम वैसा ही,
जैसे,
मन के शीशे को,
बेचैनी के पत्थर से,
किरच किरच में ,पसार देना,
और फ़िर,
लहू लुहान हथेलियों को,
अश्क के मरहम से देना,
’मसर्रत’!
और कौन?
फ़िर,अपने आपसे पूछना भी!"
एक दम वैसा ही,
जैसे,
मन के शीशे को,
बेचैनी के पत्थर से,
किरच किरच में ,पसार देना,
और फ़िर,
लहू लुहान हथेलियों को,
अश्क के मरहम से देना,
’मसर्रत’!
और कौन?
फ़िर,अपने आपसे पूछना भी!"
Wednesday, November 20, 2013
ठहराव!
कितना मुश्किल है,
किसी भी इंसा के लिये,
चलते चलते,रूक जाना
खुद ब खुद!
थक कर चूर,
कुछ मुसलसल चलने वाले
चाहते थे रूकना!
कभी,छाँव न मिली,
कभी रास न आया थकना।
मेंने कहा,अब रूक भी जाओ,
कोई,इक थोडी देर,
बस यूँ ही ज़रा,
वो बोले,
मगर कैसे?
जैसे,खोल दे कोई,
बंद मुठृठी को, मैंने कहा
वो बोले,घबराकर,
मगर कैसे?
सच में कितना मुश्किल होता है,
जिन्दगियों का आसां होना।
रूके कोई क्यूं,
मौत के आगोश,से,
पहले भला!
चलते रहने का,क्यूँ
यूँ हीं चले ये सिलसिला?
किसी भी इंसा के लिये,
चलते चलते,रूक जाना
खुद ब खुद!
थक कर चूर,
कुछ मुसलसल चलने वाले
चाहते थे रूकना!
कभी,छाँव न मिली,
कभी रास न आया थकना।
मेंने कहा,अब रूक भी जाओ,
कोई,इक थोडी देर,
बस यूँ ही ज़रा,
वो बोले,
मगर कैसे?
जैसे,खोल दे कोई,
बंद मुठृठी को, मैंने कहा
वो बोले,घबराकर,
मगर कैसे?
सच में कितना मुश्किल होता है,
जिन्दगियों का आसां होना।
रूके कोई क्यूं,
मौत के आगोश,से,
पहले भला!
चलते रहने का,क्यूँ
यूँ हीं चले ये सिलसिला?
Saturday, September 21, 2013
फ़क़ीरी
खा़र होने की भी कीमत चुकाई है मैने
गुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!
कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैं
कभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!
अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसी
बेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!
लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!
गुलों के जख्म जिगर में छुपाये फिरता हूँ!
कभी ज़ुल्फ़ों की छाँव में भी पैर जलते हैं
कभी सेहरा को भी सर पे उठाये फ़िरता हूँ!
अजीब फ़िज़ा है शहर की ये मक़तल जैसी
बेगुनाह हूँ मगर मूँह छुपाये फ़िरता हूँ!
लूट लेंगे सब मिल कर शरीफ़ लोग है ये,
शहर-ए- आबाद में फ़कीरी बचाये फ़िरता हूँ!
Sunday, August 18, 2013
औरत और दरख्त!
औरत और दरख्त में क्या फ़र्क है?
मुझे नज़र नहीं आता,
क्या मेरी बात पे
आपको यकीं नहीं आता!
तो गौर फ़रमाएं,
मैं गर गलत हूँ!
तो ज़ुरूर बतायें
दोनों दिन में खाना बनाते हैं
एक ’क्लोरोफ़िल’ से,
और दूसरी
गर कुछ पकाने को न हो,
तो सिर्फ़ ’दिल’ से!
एक रात को CO2 से साँस बनाये है,
दूसरी हर साँस से आस लगाये है,
पेड की ही तरह ,
औरत मिल जायेगी,
हर जगह,
खेत में, खलिहान में,
घर में, दलान में,
बस्ती में,श्मशान में,
हाट में, दुकान में,
और तो और वहाँ भी,
जहाँ कॊई पेड नहीं होता,
’ज़िन्दा गोश्त’ की दुकान में!
अब क्या ज़ुरूरी नहीं दोनों को बचाना?
मुझे नज़र नहीं आता,
क्या मेरी बात पे
आपको यकीं नहीं आता!
तो गौर फ़रमाएं,
मैं गर गलत हूँ!
तो ज़ुरूर बतायें
दोनों दिन में खाना बनाते हैं
एक ’क्लोरोफ़िल’ से,
और दूसरी
गर कुछ पकाने को न हो,
तो सिर्फ़ ’दिल’ से!
एक रात को CO2 से साँस बनाये है,
दूसरी हर साँस से आस लगाये है,
पेड की ही तरह ,
औरत मिल जायेगी,
हर जगह,
खेत में, खलिहान में,
घर में, दलान में,
बस्ती में,श्मशान में,
हाट में, दुकान में,
और तो और वहाँ भी,
जहाँ कॊई पेड नहीं होता,
’ज़िन्दा गोश्त’ की दुकान में!
अब क्या ज़ुरूरी नहीं दोनों को बचाना?
Thursday, August 8, 2013
चाँद! ईद का!
चाँद तो चाँद है,
ईद का हो!
दूज का हो!
हो पूनम का!
या,
चेहरा सनम का!
चाँद तो चाँद है.
_कुश शर्मा.
मगर ये भी याद रखना है ज़ुरूरी,
"धूप लाख मेहरबाँ हो,मेरे दोस्त,
धूप, धूप होती है,चाँदनी नहीं होती"
_शायर (न मालूम)
ईद का हो!
दूज का हो!
हो पूनम का!
या,
चेहरा सनम का!
चाँद तो चाँद है.
_कुश शर्मा.
मगर ये भी याद रखना है ज़ुरूरी,
"धूप लाख मेहरबाँ हो,मेरे दोस्त,
धूप, धूप होती है,चाँदनी नहीं होती"
_शायर (न मालूम)
Saturday, July 27, 2013
दुआ का सच!
ज़ख्म देता है कोई,मुझे कोई दवा देता है,
कौन ऐसा है,यहाँ जो मुझको वफ़ा देता है!
ये बारिशें भी कब यहाँ साल भर ठहरतीं है,
हर नया मौसम मिरे ज़ख्मों को हवा देता है।
तेरी बातें न करूँ मैं, अगर दीवारों से,
है कोई काम?जो दीवानों को मज़ा देता है!
दुश्मनों से ही है अब एक रहम की उम्मीद,
है कोई दोस्त, जो, मरने की दुआ देता है?
कौन ऐसा है,यहाँ जो मुझको वफ़ा देता है!
ये बारिशें भी कब यहाँ साल भर ठहरतीं है,
हर नया मौसम मिरे ज़ख्मों को हवा देता है।
तेरी बातें न करूँ मैं, अगर दीवारों से,
है कोई काम?जो दीवानों को मज़ा देता है!
दुश्मनों से ही है अब एक रहम की उम्मीद,
है कोई दोस्त, जो, मरने की दुआ देता है?
Tuesday, July 16, 2013
गाल का तिल!
मैं कब का,निकल आता
तेरी जुदाई के सदमें से,
और भूल भी जाता तुझको,
मगर कुदरत की नाइंसाफ़ियों का क्या करूँ?
तुझे याद भी नहीं होगा,
वो ’मेरे’ गाल का तिल,
जिसे चूमते हुये,
तूने दिखाया था,
अपने गाल का तिल!
तेरी जुदाई के सदमें से,
और भूल भी जाता तुझको,
मगर कुदरत की नाइंसाफ़ियों का क्या करूँ?
तुझे याद भी नहीं होगा,
वो ’मेरे’ गाल का तिल,
जिसे चूमते हुये,
तूने दिखाया था,
अपने गाल का तिल!
Sunday, June 30, 2013
तलाश एक अच्छे इन्सान की।
यूँ ही,
कल रात,
बेसाख्त: लगा ढूँडने
एक अच्छा इन्सान,
रात काफ़ी हो गई थी,
और थी थोडी थकान,
फ़िर भी
मन के फ़ितूर को
शान्त करना भी था
"ज़रूरी"
अब मेरी आदत कह लीजिये,
या यूँ ही!
दफ़्तन ’दस्तूरी’
मैंने कहा क्यूँ कहीं और जायें?
क्यों न अपने पहलू में ही गौर फ़र्मायें!
जा मिला मैं आईने से!
और पूछा ,
है भला कोई यहाँ!
मुझसे ’भला’?
एक आवाज़ कहीं दूर से,
आई या वहम के बाइस सुनाई दी!
"बुरा जो देखन मैं चला,
बुरा न मिलया कोय
जब घट देखा आपना,
मुझ से बुरा न कोय"
कबीर साहब,
इतना ’सच’ किस काम का!
के जीना ही दुश्वार हो जाये!
केदारनाथ की जय हो!
"मैं तो नूर बन के तेरे दीदों में रहता था,
तोड दीं जो तूने उन उम्मीदों में रहता था!"
"जब तक पूजते रहे तो पत्थर में भी खुदा थे,
जब से बिके बाज़ार में,शिव पत्थर के हो गये!
"जब ज़र्रे ज़र्रे में मैं हूँ तो पत्थर में क्यों नहीं,
अज़ाब* भी तो मेरा रंग है,मेरे घर में क्यूँ नहीं?
और एक नज़र हकीम ’नासिर’ साहिब के दो शेर जो केदारनाथ धटनाक्रम पर सटीक बात कहते नज़र आते हैं
I hope Kedarnath (भगवान केदारनाथ) is listening too,
"पत्थरों आज मेरे सर पे बरसते क्यूँ हो,
मैंने तुम को भी कभी अपना खुदा रक्खा है।"
And for the victims at Kedarnath
"पी जा अय्याम की तल्खी को भी हँस के ’नासिर’
ग़म को सहने में भी कुदरत ने मज़ा रक्खा है!"
************************************* अज़ाब = पीड़ा, सन्ताप, दंड
Friday, May 31, 2013
बुत और खुदा!
तपन हुस्न की कब ता उम्र रही है कायम,
मेरे सब्र की ज़मीं ने हर मौसम को बदलते देखा है।
अब ऐसी नींद भी खुदा किसी को न अता करे,
मैंने अक्सर अपनी रुह को ख्वाबों में जलते देखा है।
वख़त बुरा आये तो कभी दोस्तों को मत ढूँडो,
अँधेरी रात में कभी,साये को साथ देखा है?
हर चमकती सुबह को स्याह रात में ढलते देखा है,
हमने अपने खुदाओ को अक्सर बुत में बदलते देखा है।
मेरे सब्र की ज़मीं ने हर मौसम को बदलते देखा है।
अब ऐसी नींद भी खुदा किसी को न अता करे,
मैंने अक्सर अपनी रुह को ख्वाबों में जलते देखा है।
वख़त बुरा आये तो कभी दोस्तों को मत ढूँडो,
अँधेरी रात में कभी,साये को साथ देखा है?
हर चमकती सुबह को स्याह रात में ढलते देखा है,
हमने अपने खुदाओ को अक्सर बुत में बदलते देखा है।
Friday, April 5, 2013
आदमी और चींटियाँ!
मेरे दादा जी,
सवेरे चींटियों को,
आटा खिलाने जाते थे!
मेरे पिता जी
जब सवेरे बाहर जाते थे,
तो चींटिंयाँ,
पैरों से न दब जायें
इस का ख्याल रखते थे,
मैं जब walk करता हूँ,
तो चीटियाँ
दिखती ही नहीं!
मेरा बेटा सवेरे
उठता ही नहीं,
पता नहीं क्या हो गया है?
इंसान,
चीटिंयों,
नज़र
और समय को!
Saturday, March 30, 2013
नींद की गठरी!
दोस्ती का देखने को,अब कौन सा मंज़र मिले,
फिर कलेजा चाक हो,या पीठ में खंजर मिले!
मेरी बरबादी की खातिर,दुश्मनी कम पड गई,
दिल में यारों को बसाया,उसके बस खंडहर मिले!
मैंने समझा था गुलों की सेज,तुरबत को मगर,
कब्र में जा कर भी बस,बदनामी के नश्तर मिले।
लोग लेकर चल पडे थे,सामाँ मसर्रत के सभी,
नींद की गठरी नहीं थी,खाली उन्हे बिस्तर मिले।
फिर कलेजा चाक हो,या पीठ में खंजर मिले!
मेरी बरबादी की खातिर,दुश्मनी कम पड गई,
दिल में यारों को बसाया,उसके बस खंडहर मिले!
मैंने समझा था गुलों की सेज,तुरबत को मगर,
कब्र में जा कर भी बस,बदनामी के नश्तर मिले।
लोग लेकर चल पडे थे,सामाँ मसर्रत के सभी,
नींद की गठरी नहीं थी,खाली उन्हे बिस्तर मिले।
Tuesday, March 26, 2013
Friday, March 15, 2013
ख्वाहिशें
ख्वाब पलकों के पीछे से चुभने लगे,
मेरा दिलबर मुझे रू-ब-रू चाहिये!
अँधेरा पुतलियों तक पहुँचने लगा,
नूर तेरा मुझे अब चार सू चाहिये!
फ़ूल कागज़ के हैं ये महकते नहीं,
गेसुओं की तेरे मुझको वो बू चाहिये!
आँख से जो गिरा अश्क है बेअसर,
जो लफ़्ज़ों मे हो वो लहू चाहिये!
Sunday, March 10, 2013
अफ़साना-ए-वफ़ा
कभी करना न भरोसा,
दिल की लन्तरानी पे
ये वो सराब हैं,
जो सरे सहरा ,
तेरी तिश्नगी को
धूप के हवाले करके,
तुझे आँसुओं की शबनम के सहारे छोड जायेगा,
औ दर्द तेरा
सबब बन जायेगा,
कहकहों का,
ज़माना सिर्फ़ तेरी नाकामयाब मोहब्बतों को
कहानियों में सुनायेगा !
ऐ दिल-ए- नादाँ,
सम्भल,
इश्क कभी वफ़ा वालों को, मिला है अब तक?
तेरा अफ़साना भी
माज़ी के वर्कॊं में दबाया जायेगा.
Saturday, March 9, 2013
खता किसकी!
मुझे बस इतना बताते जाते,
क्यूँ मुस्कुराते थे,तुम आते जाते!
शब-ए-इंतेजार मुख्तसर न हूई,
दम मगर जाता रहा तेरे आते आते।
तिश्नगी लब पे मकीं हो गई,
तेरी जुल्फों की घटा छाते छाते।
दर-ए-दुश्मन था,और मयखाना
गम के मारे बता किधर जाते?
तेरा घर मेरी गली के मोड पे था, रास्ते भला कैसे जुदा हो पाते?
तेरा घर मेरी गली के मोड पे था, रास्ते भला कैसे जुदा हो पाते?
Monday, December 31, 2012
साल नया है!
मान लूँगा,
साल नया है,
अगर कल का अखबार शर्मिदा न करे! तो!
मान लूँगा,
अगर 01 जनवरी 2013 की शाम को कोई भी हिन्दुस्तानी भूखा न सोये!
मान लूँगा,
तुम सब अगर कसम खाओ के कम से कम आज कोई घूस नहीं खायेगा!
मान लूँगा,
अगर तुम मान लोगे कि ,
सिर्फ़ अपने अतीत में रहने वाली कौमें,कायम नहीं रह पातीं!
मैं कैसे मान लूँ साल नया है?
क्यों कि न नौ मन तेल होगा, और न राधा नाचेगी!
नाचे कैसे?
कैसे?
नाचे तो!
पर,
राधा को जीने दोगे तब न?
साल नया है,
अगर कल का अखबार शर्मिदा न करे! तो!
मान लूँगा,
अगर 01 जनवरी 2013 की शाम को कोई भी हिन्दुस्तानी भूखा न सोये!
मान लूँगा,
तुम सब अगर कसम खाओ के कम से कम आज कोई घूस नहीं खायेगा!
मान लूँगा,
अगर तुम मान लोगे कि ,
सिर्फ़ अपने अतीत में रहने वाली कौमें,कायम नहीं रह पातीं!
मैं कैसे मान लूँ साल नया है?
क्यों कि न नौ मन तेल होगा, और न राधा नाचेगी!
नाचे कैसे?
कैसे?
नाचे तो!
पर,
राधा को जीने दोगे तब न?
Tuesday, November 13, 2012
मशालें!
जिस्मों की ये मजबूरियाँ,
रूहों के तकाज़े,
इंसान लिये फिरते हैं,
खुद अपने ज़नाजे।
रूहों के तकाज़े,
इंसान लिये फिरते हैं,
खुद अपने ज़नाजे।
आँखो मे अँधेरे हैं,
हाथों में मशालें,
अँधों से है उम्मीद
के वो पढ लें रिसाले!
हाथों में मशालें,
अँधों से है उम्मीद
के वो पढ लें रिसाले!
हमको नहीं है इल्म
कैसे पार लगें हम,
लहरों की तरफ़ देखें,
या कश्ती को संभालें!
कैसे पार लगें हम,
लहरों की तरफ़ देखें,
या कश्ती को संभालें!
Saturday, October 27, 2012
चाँद और तुम!
अभी कुछ देर पहले.
रात के पिछ्ले प्रहर
चाँद उतर आया था,
रात के पिछ्ले प्रहर
चाँद उतर आया था,
मेरे सूने दलान में,
यूँ ही,
मैंने तुम्हारा नाम लेकर
पुकार था,
उसको ,
अच्छा लगा! उसने कहा,
इस नये नाम से पुकारा जाना,
तुम्हें कोई एतराज तो नहीं,
गर मैं रोज़ उस से बातें कर लिया करूँ?
और हाँ उसे पुकारूं तुम्हारे नाम से,
उसे अच्छा लगा था न!
तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा न?
गर चाँद को मैं पुकारूं तुम्हारे नाम से!
यूँ ही,
मैंने तुम्हारा नाम लेकर
पुकार था,
उसको ,
अच्छा लगा! उसने कहा,
इस नये नाम से पुकारा जाना,
तुम्हें कोई एतराज तो नहीं,
गर मैं रोज़ उस से बातें कर लिया करूँ?
और हाँ उसे पुकारूं तुम्हारे नाम से,
उसे अच्छा लगा था न!
तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा न?
गर चाँद को मैं पुकारूं तुम्हारे नाम से!
Tuesday, August 28, 2012
मुगाल्ता!
वो मेरा नाम सुन के जल गया होगा,
किसी महफ़िल में मेरा ज़िक्र चल गया होगा!
उसकी बातों पे एतबार मत करना,
सच बात जान के बदल गया होगा!
तुमने नकाब उठाया ही क्यों,
दिल नादान था मचल गया होगा!
मौसम बारिशो का अभी बाकी है,
रुख हवाओं का बदल गया होगा!
रास्ते सारे गुम हो गये होगें,
वो फ़िर भी घर से निकल गया होगा!
Tuesday, July 31, 2012
इश्क-ए-बेपनाह!
मैं और करता भी क्या,
वफ़ा के सिवा!
मुझको मिलता भी क्या,
दगा के सिवा!
बस्तियाँ जल गई होंगी,
बचा क्या धुआँ के सिवा!
अब गुनाह कौन गिने,
मिले क्या बद्दुआ के सिवा!
कहाँ पनाह मिले,
बुज़ुर्ग की दुआ के सिवा!
दिल के लुटने का सबब,
और क्या निगाह के सिवा!
ज़ूंनून-ए-तलाश-ए-खुदा,
कुछ नही इश्क-ए-बेपनाह के सिवा!
Wednesday, July 4, 2012
मैं और मेरा खुदा!
घुमड रहा है,
गुबार बन के कहीं,
अगर तू सच है तो,
ज़ुबाँ पे आता क्यों नही?
"ईश्वरीय कण" |
सच अगर है तो,
तो खुद को साबित कर,
झूंठ है तो,
बिखर जाता क्यों नहीं?
आईना है,तो,
मेरी शक्ल दिखा,
तसवीर है तो,
मुस्कुराता क्यों नहीं?
मेरा दिल है,
तो मेरी धडकन बन,
अश्क है,
तो बह जाता क्यों नहीं?
ख्याल है तो कोई राग बन,
दर्द है तो फ़िर रुलाता,
क्यों नही?
बन्दा है तो,
कोई उम्मीद मत कर,
खुदा है तो,
नज़र आता क्यों नहीं?
बात तेरे और मेरे बीच की है,
चुप क्यों बैठा है?
बताता क्यों नहीं?
Tuesday, June 26, 2012
आज का अर्थशास्त्र!
झूँठ बोलें,सच छुपायें,
आओ चलो पैसे कमायें!
दिल को तोडें,दर्द दें,
सच से हम नज़रें बचायें
आऒ चलो पैसे कमायें!
भूखे नंगो को चलो,
सपने दिखायें,
आऒ चलो पैसे कमायें!
मौत बाँटें,औरतों के
जिस्म टीवी पर दिखायें,
आऒ चलो पैसे कमायें!
लडकियों को कोख में मारे,
गरीबो को सतायें,
आऒ चलो पैसे कमायें!
किसने देखी है कयामत,
आये न आये,
मिल के धरती को चलो
जन्नत बनायें,
मिल के धरती को चलो
जन्नत बनायें,
आऒ चलो पैसे कमायें!
देश उसकी अस्मिता,
सुरक्षा को फ़िर देख लेंगें
मौका सुनहरी है,
अभी इसको भुनायें,
आऒ चलो पैसे कमायें!
खुद निरक्षर,
मगर ज्ञान छाटें,
डिग्रियाँ बाँटें, बच्चों को भरमायें
आओ चलो पैसे कमायें
Tuesday, May 29, 2012
Sunday, April 22, 2012
निर्मल सच
अपनी नज़रों से जब जब मैं गिरता गया,
मेरा रुतबा ज़माने में बढता गया!
मेरे अखलाक की ज़बरूत घटती गई,
पैसा मेरी तिजोरी में बढता गया!
मेरे होंठों से मुस्कान जाती रही,
मेरा एहतिराम महफ़िल में बढता गया!
सब सितारे मुझे मूहँ चिढाते रहे,
मैं सिम्त-ए-तारीकी बढता गया!
Location:Pune
पुणे, महाराष्ट्र, भारत
Friday, April 13, 2012
रंग-ए-महफ़िल
चोट खा कर मुस्कुराना चाहता हूँ,
क्या करूँ रिश्ते निभाना चाह्ता हूँ!
ये रंगत-ए- महफ़िल तो कुछ ता देर होगी,
मैं थक गया हूँ घर को जाना चाहता हूँ!
तुम मेरी यादों में अब हर्गिज़ न आना,
मैं भी तुम को भूल जाना चाहता हूँ!
चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को अब,
आदमी हूँ मैं भी इक घर बसाना चाह्ता हूँ!
बस करो अब और न तोहमत लगाओ,
मैं भी एक माज़ी सुहाना चाहता हूँ!
PS:
न जाने क्युँ जब कि आप सब पढने वलों ने इतनी तव्व्जों से पढा और सराहा है, दिल में आता कि, आखिरी से पहले वाला शेर कुछ ऐसे कहा जाये-
"चल पडा हूँ राह-ए-शहर-ए-आबाद को मैं ,
आशिक तो हूँ पर इक घर बसाना चाह्ता हूँ!"
Thursday, March 22, 2012
चेहरे!
चेहरे!
अजीब,
गरीब,
और हाँ, अजीबो गरीब!
मुरझाये,
कुम्हलाये,
हर्षाये,
घबराये,
शर्माये,
हसींन,
कमीन,
बेहतरीन,
नये,
पुराने
जाने,
पहचाने,
और हाँ ’कुछ कुछ’ जाने पहचाने,
अन्जाने,
बेगाने,
दीवाने
काले-गोरे,
और कुछ न काले न गोरे,
कुछ कि आँखों में डोरे,
कोरे,
छिछोरे,
बेचारे,
थके से,
डरे से,
अपने से,
सपने से,
मेरे,
तेरे,
न मेरे न तेरे,
आँखें तरेरे,
कुछ शाम,
कुछ सवेरे,
घिनौने,
खिलौने,
कुछ तो जैसे
गैईया के छौने,
चेहरे ही चेहरे!
पर कभी कभी,
मिल नही पाता,
अपना ही चेहेरा!
अक्सर भाग के जाता हूँ मैं,
कभी आईने के आगे,
और कभी नज़दीक वाले चौराहे पर!
हर जगह बस अक्श है,परछाईं है,
सिर्फ़ भीड है और तन्हाई है !
Location:Pune
Pune, Maharashtra, India
Thursday, February 23, 2012
सजा इंसान होने की !
मेरे तमाम गुनाह हैं,अब इन्साफ़ करे कौन.
कातिल भी मैं, मरहूम भी मुझे माफ़ करे कौन.
दिल में नहीं है खोट मेरे, नीयत भी साफ़ है,
कमज़ोरियों का मेरी, अब हिसाब करे कौन.
हर बार लड रहा हूं मै खुद अपने आपसे,
जीतूंगा या मिट जाऊंगा, कयास करे कौन.
मुदद्दत से जल रहा हूं मै गफ़लत की आग में,
मौला के सिवा, मेरी नज़र साफ़ करे कौन.
गर्दे सफ़र है रुख पे मेरे, रूह को थकान,
नफ़रत की हूं तस्वीर,प्यार बेहिसाब करे कौन.
Friday, January 27, 2012
Please! इसे कोई न पढे! चुनाव सर पर हैं!
थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,
बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,
वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,
और था एक पत्थर भी,
वो भी रास्ते का,
सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,
जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,
वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,
बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!
बीन सुन कर
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।
भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!
सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं,
नितांत यर्थाथ में।
Monday, January 23, 2012
उसका सच! एक बार फ़िर!
मुझे लग रहा है,पिछले कई दिनों से ,
या शायद, कई सालों से,
कोई है, जो मेरे बारे में सोचता रहता है,
हर दम,
अगर ऐसा न होता ,
तो कौन है जो, मेरे गिलास को शाम होते ही,
शराब से भर देता है।
भगवान?
मगर, वो ना तो पीता है,
और ना पीने वालों को पसंद करता है ,
ऐसा लोग कह्ते हैं,
पर कोई तो है वो !
कौन है वो, जो,
प्रथम आलिगंन से होने वाली अनुभुति
से मुझे अवगत करा गया था।
मेरे पिता ने तो कभी इस बारे में मुझसे बात ही नहीं की,
पर कोई तो है, वो!
कौन है वो ,जो
मेरी रोटी के निवाले में,
ऐसा रस भर देता है,
कि दुनियां की कोई भी नियामत,
मुझे वो स्वाद नहीं दे सकती।
पर मैं तो रोटी बनाना जानता ही नही
कोई तो है ,वो!
कौन है वो ,जो,
उन तमाम फ़ूलों के रगं और गंध को ,
बदल देता है,
कोमल ,अहसासों और भावनाओं में।
मेरे माली को तो साहित्य क्या, ठीक से हिन्दी भी नहीं आती।
कोई तो है ,वो,
वो जो भी है,
मैं जानता हूं, कि,
एक दिन मैं ,
जा कर मिलु्गां उससे,
और वो ,हैरान हो कर पूछेगा,
क्या हम, पहले भी ,कभी मिलें हैं?
Thursday, December 15, 2011
अपनी कहानी ,पानी की ज़ुबानी !
एक अरसा हुया ये चन्द शब्द लिखे हुये, आज ऐसे ही "सच में" की रचनाओं की पसंदगी नापसंदगी देखने की कोशिश कर रहा था, इस रचना को सब से ज्यादा बार पढा गया है, मेरे ब्लोग पर लेकिन हैरानी की बात है कि इस पर सिर्फ़ एक पढने वाले ने अपनी राय ज़ाहिर की है! मुझे लगा कि एक बार फ़िर से इसे पोस्ट करूं ,मेरे उन पाठकों के लिये जो पारखीं हैं और जिन की नज़र से यह रचना चूक गई है!
आबे दरिया हूं मैं,कहीं ठहर नहीं पाउंगा,
मेरी फ़ितरत में है के, लौट नहीं आउंगा।
जो हैं गहराई में, मिलुगां उन से जाकर ,
तेरी ऊंचाई पे ,मैं कभी पहुंच नहीं पाउंगा।
दिल की गहराई से निकलुंगा ,अश्क बन के कभी,
बद्दुआ बनके कभी, अरमानों पे फ़िर जाउंगा।
जलते सेहरा पे बरसुं, कभी जीवन बन कर,
सीप में कैद हुया ,तो मोती में बदल जाउंगा।
मेरी आज़ाद पसन्दी का, लो ये है सबूत,
खारा हो के भी, समंदर नहीं कहलाउंगा।
मेरी रंगत का फ़लसफा भी अज़ब है यारों,
जिस में डालोगे, उसी रंग में ढल जाउंगा।
बहता रहता हूं, ज़ज़्बातों की रवानी लेकर,
दर्द की धूप से ,बादल में बदल जाउंगा।
बन के आंसू कभी आंखों से, छलक जाता हूं,
शब्द बन कर ,कभी गीतों में निखर जाउंगा।
मुझको पाने के लिये ,दिल में कुछ जगह कर लो,
मु्ठ्ठी में बांधोगे ,तो हाथों से फ़िसल जाउंगा।
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आबे दरिया : नदी का पानी
आज़ाद पसन्दी : Independent Thinking(nature)
फ़लसफा : Philosophy
Sunday, November 13, 2011
Wednesday, November 9, 2011
गंगा आरती!
हरि पुत्री बन कर तू उतरी
माँ गंगा कहलाई,
पाप नाशनी,जीवन दायनी
जै हो गंगा माई!
भागीरथी,अलकनंदा,हैं
नाम तुम्हारे प्यारे,
हरिद्वार में तेरे तट पर
खुलते हरि के द्वारे!
निर्मल जल
अमृत सा तेरा,
देह प्राण को पाले
तेरी जलधारा छूते ही
टूटें सर्वपाप के ताले!
माँ गंगा तू इतनी निर्मल
जैसे प्रभु का दर्शन,
पोषक जल तेरा नित सींचे
भारत माँ का आंगन!
तू ही जीवन देती अनाज में
खेतों को जल देकर,
तू ही आत्मा को उबारती
देह जला कर तट पर!
पर मानव अब
नहीं जानता,खुद से ही क्यों हारा,
तेरे अमृत जैसे जल को भी
कर बैठा विषधारा!
माँ का बूढा हो जाना,
हर बालक को खलता है,
प्रिय नहीं है,सत्य मगर है,
जीवन यूंही चलता है!
हमने तेरे आँचल में
क्या क्या नहीं गिराया,
"गंगा,बहती हो क्यूं?"भी पूछा,
खुद का दोष न पाया!
डर जाता हूं सिर्फ़ सोच कर,
क्या वो दिन भी आयेगा,
गंगाजल मानव बस जब,
माँ की आँखो में ही पायेगा!
Monday, October 24, 2011
दीवाली सच में!
माँ लक्ष्मी आपको कोटिश: नमन
और नमन के बाद,
खुली चुनौती है!
यदि आप ’सच में’
उस सत्य स्वरूप,
ईश्वर के प्रतिरूप
क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करते,
परम पूज्य, सदा स्मरणीय,
भक्त हृदय निवासी,
दीनानाथ,दीनबन्धु
के चरण कमलों की सदा सेवा का वरदान प्राप्त कर,
जगत जननी स्वरूपा हैं...
तो अबके बरस ,
झूंठ,पाखंड,कपट,छल,
और दम्भ से इतराती
महलों की अट्टालिकाओं से
प्रभु की अद्भुत रचना ’मानव’
के रचे खेल देखने की बजाय,
किसी भूखे मेहेनती,
या सच्चे जरूरती के झोपडें मे जाना ज़रूर,
क्यों कि उसकी आस्था,
उसकी गरीबी की पीडा की सीमायें लाँघ कर भी,
उसे आपकी आराधना को विवश करतीं हैं ,
माँ, कम से इतना तो हो ही सकता है,
"हैप्पी दिपावली" के अवसर पर!
यदि इस बार भी ऐसा न हुआ तो,
कलयुग फ़िर अट्टहास करते हुये,
ईश्वरीय आस्था के ह्रास का उद्घघोष कर देगा,
और अंधेरा , राम के पुनरागमन के बावजूद,
इस धरा पर अपने साम्राज्य के स्थाई होने का
ऐलान कर मुस्कुरायेगा!
माँ, लक्ष्मी छोटी बात है, आपके लिये,
और मैंने कौन सी BMW माँग ली अपने लिये,
या मेरी पत्नी कोई,
तनिष्क के चार कंगन मिलने के बाद भी,
सिर्फ़ एक और Diamond Ring की ख्वाहिश कर रही है...
और नमन के बाद,
खुली चुनौती है!
यदि आप ’सच में’
उस सत्य स्वरूप,
ईश्वर के प्रतिरूप
क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करते,
परम पूज्य, सदा स्मरणीय,
भक्त हृदय निवासी,
दीनानाथ,दीनबन्धु
के चरण कमलों की सदा सेवा का वरदान प्राप्त कर,
जगत जननी स्वरूपा हैं...
तो अबके बरस ,
झूंठ,पाखंड,कपट,छल,
और दम्भ से इतराती
महलों की अट्टालिकाओं से
प्रभु की अद्भुत रचना ’मानव’
के रचे खेल देखने की बजाय,
किसी भूखे मेहेनती,
या सच्चे जरूरती के झोपडें मे जाना ज़रूर,
क्यों कि उसकी आस्था,
उसकी गरीबी की पीडा की सीमायें लाँघ कर भी,
उसे आपकी आराधना को विवश करतीं हैं ,
माँ, कम से इतना तो हो ही सकता है,
"हैप्पी दिपावली" के अवसर पर!
यदि इस बार भी ऐसा न हुआ तो,
कलयुग फ़िर अट्टहास करते हुये,
ईश्वरीय आस्था के ह्रास का उद्घघोष कर देगा,
और अंधेरा , राम के पुनरागमन के बावजूद,
इस धरा पर अपने साम्राज्य के स्थाई होने का
ऐलान कर मुस्कुरायेगा!
माँ, लक्ष्मी छोटी बात है, आपके लिये,
और मैंने कौन सी BMW माँग ली अपने लिये,
या मेरी पत्नी कोई,
तनिष्क के चार कंगन मिलने के बाद भी,
सिर्फ़ एक और Diamond Ring की ख्वाहिश कर रही है...
Saturday, October 8, 2011
झुनझुने!
कोई ऐसा शहर बनाओ यारों,
हर तरफ़ आईने लगाओ यारों!
नींद में खो गये हैं ज़मीर सभी,
शोर करो इन को जगाओ यारो!
नयी नस्लें इन्ही रास्तों से गुजरेंगी,
राहे मन्ज़िल से ये काई हटाओ यारो!
बच्चे भूखे हैं, दूध मांगते है,
ख्वाब के झुनझुने मत बजाओ यारों!
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