ये सब हैं चाहने वाले!और आप?

Sunday, October 24, 2010

झूंठ !


जब भी आपको झूंठ बोलना हो!
(अब आज कल करना ही पडता है!)

एक काम करियेगा,
झूंठ बोल के, कसम खा लीजियेगा,

अब! कसम जितनी मासूम हो,

उतना अच्छा!!

बच्चे की कसम,
सच्चे की कसम,
झूंठ के लच्छे की कसम,
हर एक अच्छे की कसम,


अच्छा माने 
गीता,कुरान,
बच्चे की मुस्कान,
तितली के रंग,
कोयल की बोली,
बर्फ़ की गोली, 
तोतली बोली,
मां की डांट 
पल्लू की गांठ,
...आदि,आदि

चाहे जो भी हो कसम ’पाक’ लगे!

लोग सच मान लेगें!

अगर न भी मानें,

तो भी कसम की लाज निभाने के लिये,

सच मानने का नाटक जरूर करेंगे!  

दरअसल,

लोग झूंठे, इस लिये नहीं होते,

कि वो झूंठ बोलते हैं!

वो झूंठे तब साबित होते हैं,

जब वो झूंठ सुनकर भी,

उसे ’सच’ मान लेने का नाटक करते हैं!!


क्यों कि वो सच का सामना करने से,डरते हैं!

"सच में"

कसम  तो मैं खाता नहीं!

Tuesday, October 12, 2010

ताल्लुकातों की धुंध!



पता नहीं क्यों,
जब भी मैं किसी से मिलता हूं,
अपना या बेगाना,
मुझे अपना सा लगता है!


और अपने अंदाज़ में


मैं खिल जाता हूं,
जैसे सर्दी की धूप,


मैं लिपट जाता हूं,
जैसे जाडे में लिहाफ़,


मै चिपक जाता हूं,
जैसे मज़ेदार किताब,


मैं याद आता हूं
जैसे भूला हिसाब,
(पांच रुप्पईया, बारह आना)  




मुझे कोई दिक्कत नहीं,
अपने इस तरीके से लेकिन,
पर अब सोचता हूं,
तो लगता है,


लोग हैरान ओ परेशान हो जाते हैं,
इतनी बेतकक्लुफ़ी देखकर,


फ़िर मुझे लगता है,
शायद गलती मेरी ही है,
अब लोगों को आदत नहीं रही,
इतने ख़ुलूस और बेतकल्लुफ़ी से मिलने की,


लोग ताल्लुकातों की धुंध में


रहना पसंद करते है,


शायद किसी
’थ्रिल’ की तलाश में


जब भी मिलो किसी से,
एक नकाब ज़रूरी है,
जिससे सामने वाला 


जान न पाये कि असली आप,
दरअसल,


है कौन? 



Saturday, October 2, 2010

पंचतत्रं और इकीसवीं सदी!

एक बार की बात है!
"’एक’ खरगोश ने ’एक’ कछुये से कहा!"......


’पंचतंत्र’ की कथाओं में ऐसा पढा था,

पर शायद, वो बीसवीं सदी की बात है!

एक्कीसवीं सदी में न तो,
विष्णु शर्मा को जानने वाले हैं!

न ये मानने वाले कि,

किसी ’खरगोश’ ने कभी किसी ,’कछुये’ से,


बात की होगी!

क्यों कि आज तो ’इंसान’की कही बात 
’इंसान’ को समझ में नहीं आती!

’खरगोश’और ’कछुये’ के बीच हुये संवाद को,
समझने वाला कहां ढूडते हो, 

इस समय में आप! 





Tuesday, September 28, 2010

चांदनी रात और ज़िन्दगी!

खुशनुमा माहौल में भी गम होता है,
हर चांदनी रात सुहानी नहीं होती।

भूख, इश्क से भी बडा मसला है,
हर एक घटना कहानी नहीं होती।

दर्द की कुछ तो वजह रही होगी,
हर तक़लीफ़ बेमानी नही होती।

श्याम को ढूंढ के थक गई होगी,
हर प्रेम की मारी दिवानी नही होती।

शाम होते ही रात का अहसास,
विदाई सूरज की सुहानी नहीं होती।

हर इंसान गर इसे समझ लेता,
ज़िन्दगी पानी-पानी नहीं होती। 



Saturday, September 25, 2010

तुकबन्दी "UNLIMITED"!!





दोस्ती में कोई Hierarchy नहीं होती,
इश्क में कोई Limit  बाकी नही होती,

शराब अपने आप में इकदम मुकम्मल है,
हर शराबी के साथ हसीं साकी नहीं होती।

ज़िन्दगी AIR  का वो मधुर तराना है,
सुर है,ताल है, रेडिओ जौकी नही होती।

गम-ए-दुनिया के गोल पोस्ट, में दर्द की फ़ुटबाल 
लात खींचकर मारो,इस खेल में हाकी नहीं होती।

प्यार के दरिया में भी दौलत की नाव खेते हो,
मौज़ो में बहो दोस्त!,इस घाट तैराकी नहीं होती।

Friday, September 17, 2010

हर मन की"अनकही"!

मैं फ़ंस के रह गया हूं!
अपने
जिस्म,
ज़मीर,
ज़ेहन,
और
आत्मा 
की जिद्दोजहद में,

जिस्म की ज़रूरतें,
बिना ज़ेहन के इस्तेमाल,
और ज़मीर के कत्ल के,
पूरी होतीं नज़र नहीं आती!

ज़ेहन के इस्तेमाल,
का नतीज़ा,
अक्सर आत्मा पर बोझ 
का कारण बनता लगता है!

और ज़मीर है कि,
किसी बाजारू चीज!, की तरह,
हर दम बिकने को तैयार! 

पर इस कशमकश ने,
कम से कम 
मुझे,
एक तोहफ़ा तो दिया ही है!

एक पूरे मुकम्मल "इंसान"की तलाश का सुख!


मैं जानता हूं,
एक दिन,
खुद को ज़ुरूर ढूंड ही लूगां!

वैसे ही!
जैसे उस दिन,
बाबा मुझे घर ले आये थे,
जब मैं गुम गया था मेले में! 

Tuesday, September 7, 2010

कहकशां यानि आकाशगंगा!

ऐ खुदा,

हर ज़मीं को एक आस्मां देता क्यूं है?
उम्मीद को फ़िर से परवाज़ की ज़ेहमत!  
नाउम्मीदी की आखिरी मन्ज़िल है वो।

हर आस्मां को कहकशां देता क्यूं है?
आशियानों के लिये क्या ज़मीं कम है?
आकाशगंगा के पार से ही तो लिखी जाती है, 
कभी न बदलने वाली किस्मतें!

दर्द को तू ज़ुबां देता क्यूं है?
कितना आसान है खामोशी से उसे बर्दाश्त करना,
अनकहे किस्सों को बयां देता क्यूं है?
किस्से गम-ओ- रुसवाई का सबब होते है|



क्या ज़रूरत है,
तेरे इस तमाम ताम झाम की?


ज़िन्दगी! 


बच्चे की मुस्कान की तरह


बेसबब!!


और
दिलनशीं! 


भी तो हो सकती थी!

Friday, August 20, 2010

खुद की मज़ार!



मैं तेरे दर से  ऐसे गुज़रा हूं,
मेरी खुद की, मज़ार हो जैसे!

वो मेरे ख्वाब में यूं आता है,
मुझसे ,बेइन्तिहा प्यार हो जैसे!

अपनी हिचकी से ये गुमान हुआ,
दिल तेरा बेकरार हो जैसे!

परिंद आये तो दिल बहल गया,
खिज़ां में भी, बहार हो जैसे!

दुश्मनो ने यूं तेरा नाम लिया,
तू भी उनमें, शुमार हो जैसे! 

कातिल है,लहू है खंज़र पे,
मुसकुराता है,कि यार हो जैसे!



Monday, August 16, 2010

पन्द्रह अगस्त दो हज़ार दस!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो सडको पे थूकें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो ट्रैनों को फ़ूकें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो लोगों को कुचलें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो पत्थर उछालें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो घर को जला लें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो घोटले कर लें!

आज़ादी मिल गई हमको,
तिज़ोरी नोटों से भर लें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो पेडों को काटें!


आज़ादी मिल गई हमको,
चलो भूखों को डांटें!

आज़ादी मिल गई हमको,
चलो सूबों को बांटें!

गर भर गया दिल जश्न से तो चलो,
इतना कर लो,
शहीदों की याद में सजदा कर लो!

न कभी वो करना जो,
आज़ादी को शर्मसार करे,
खुद का सर झुके और
शहीदों की कुर्बानी को बेकार करे!

Tuesday, August 10, 2010

मर्दशुमारी!

जनगणना में सुना है अब ज़ात पूछी जायेगी,
इन्सान से हैवानियत की बात पूछी जायेगी!

कर चुके हम हर तरह से अपने टुकडे,
मुर्दों से अब उनकी औकात पूछी जायेगी?

दे सके न भूख से मरतों को दाना,
क्या मिलें आज़ादी की सौगात पूछी जायेगी?

गंदगी, आलूदगी फ़ैली है घरों में,
कैसे बदलेगी काइनात पूछी जायेगी?


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आलूदगी: Contamination
मर्दशुमारी: जनगणना

Thursday, August 5, 2010

द्स्तूर!



दस्तूर ये कि लोग सिर्फ़ नाम के दीवाने है,
और बुज़ुर्गों ने कहा के नाम में क्या रखा है!

लिफ़ाफ़ा देखकर औकात समझो हुज़ुर,
बात सब एक है पैगाम में क्या रखा है!

सोच मैली,नज़र मैली,फ़ितरतो रूह तक मैली,
अख्लाक़ साफ़ करो जनाब हमाम में क्या रखा है! 

Tuesday, July 27, 2010

पेच-ओ-खम

रात काली थी मगर काटी है मैने,
लालिमा पूरब में नज़र आने लगी है।


डर रहा हूं मौसमों की फ़ितरतों से,
फ़िलहाल तो पुरव्वईया सुहानी लगी है।


छंट गयी लगता है उसकी बदगुमानी,
पल्लू को उंगली पर वो घुमाने लगी है।


मज़ा इस सफ़र का कहीं गुम न जाये,
मन्ज़िल सामने अब नज़र आने लगी है।


सीखता हूं,रेख्ते के पेच-ओ-खम मैं! 
बात मेरी लोगो को अब भाने लगी है।


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रेख्ता:Urdu language used for literature.
पेच-ओ-खम:Complications. 

Sunday, July 18, 2010

इंतेहा-ए-दर्द!



दर्द को मैं ,अब दवा देने चला हूं,
खुद को ही मैं बद्दुआ देने चला हूं!

बेवफ़ा को फ़ूल चुभने से लगे थे,
ताज कांटो का उसे देने चला हूं!

मर गया हूं ये यकीं तुमको नहीं है, 
खुदकी मय्यत को कांधा देने चला हूं!

Wednesday, July 14, 2010

वो लम्बी गली का सफ़र!



मैं हैरान हूं,
ये सोच के कि आखिर तुम्हें पता कैसे चला कि,
मैं तुमसे मोहबब्त करता था!


तुम्हारी सहेलियां तो मुझे जानती तक नहीं,


मैं हैरान हूं,
कि आखिर क्यों, तुम आ जाती थीं, छ्ज्जे पर,
जब मेरे गुज़रने का वख्त होता था,तुम्हारी गली से,


मैने तो कभी नज़र मिलाई नहीं तुमसे जान कर!


मैं हैरान हूं,
कि अब कहां मिलोगी तुम,एक उम्र बीत जाने के बाद,
क्यों कि मैं खुद तुम से नज़रें मिला कर कहना चाहता हूं,


हां! मैं मोहबब्त करता हूं तुमसे, बेपनाह! 


शायद मैं अब जान पाया इतने साल बाद के,
मैं क्यों साफ़ सडक छोड कर घर जाता था,
उस तंग और लम्बी गली से होकर!



Tuesday, July 13, 2010

अंखडियां!





अंखडियां!



अनकही, कही,
सुनी,अनकही,
भीगी अंखडियां!



सावन!
बैरी सावन!
भीगा घर आंगन,
तरसे मन!


खेल!
कराकोरम- कराची रेल

खरीदें पाकी ईरानी तेल

हम खेलें क्रिकेट खेल



हिंदी में और 'हाइकु' पढ़ने के लिए और इसके बारे में जानने के लिए Follow the link below! 


Monday, July 12, 2010

तितलियां और चमन!


चमन में गुलों का नसीब होता है,
जंगली फ़ूल पे कब तितिलियां आतीं है।

कातिल अदा आपकी निराली है,
हमें कहां ये शोखियां आतीं हैं।

एक अरसे से मोहब्बत खोजता हूं,
अब कहां तोतली बोलियां आतीं है!

गद्दार हमसाये पे न भरोसा करना,
प्यार के बदले में, गोलियां आतीं हैं।

घर मेरा खास था, सो बरर्बाद हुया,
हर घर पे कहां बिजलियां आतीं हैं?



Friday, July 9, 2010

सच बरसात का!

फ़लक पे झूम रही सांवली घटायें हैं,
बदलियां हैं या, ज़ुल्फ़ की अदायें हैं।


बुला रहा है उस पार कोई नदिया के,
एक कशिश है या, यार की सदायें हैं।


बूटे बूटे में नज़र आता है तेरा मंज़र,
मेरी दीवानगी है, या तेरी वफ़ायें हैं।


याद तेरी  मुझे दीवानवर बनाये है,
ये ही इश्क है,या इश्क की अदायें हैं।


दिल तो  मासूम है, कि तेरी याद में दीवाना है,
असल में  तो न घटा है, न बदली, न हवायें हैं! 

Monday, July 5, 2010

गुलों से बात!


अज़ीब शक्स है वो गुलो से बात करता है,
अपनी ज़ुरूफ़ से भरे दिन को रात करता है.

वो जो कहता है भोली प्यार की बातें,
खामोश हो के खुदा भी समात करता है,

मां बन के कभी उसके प्यार का जादू
एक जर्रे: को भी  काइनात करता है,

मेरे प्यार को वो भला कैसे जानेगा?
जब देखो मूंह बनाके बात करता है! 

Saturday, July 3, 2010

जंगली फ़ूलो का गुलदस्ता!!

मैने सोच लिया है इस बार
जब भी शहर जाउंगा,

एक खाली जगह देख कर
सजा दूंगा अपने 

सारे ज़ख्म,

सुना है शहरों मे 


कला के पारखी 


रहते है,


सुंदर और नायब चीजों, 


के दाम भी अच्छे मिलते है वहां।

पर डरता हूं ये सोच कर,



जंगली फ़ूलो का गुलदस्ता, 




कोई भी नहीं सजाता अपने घर में!




खास तौर पे बेजान शहर में!



Wednesday, June 30, 2010

"अभी, कुछ बाकी है!"

आज शाम प्राइम टाइम पर हिन्दी खबरो का एक मशहूर खबरी चैनल जो सबसे तेज़ तो नहीं है,पर TRP में शायद आगे रहता हो, एक सनसनी खेज खबर दिखा रहा था। शायद! क्यों कि मैं,खुद कभी ये TRP और उसका असली खेल समझ नहीं पाया,क्यों कि शायद मेरी खुद की TRP कभी भी रसातल से धरातल पर नहीं पहुंच पाई।खैर!,मेरी TRP बाद में,उस खबर पर आते हैं।


खबर के मुताबिक नागपुर में, एक ७४ साल के बुज़ुर्ग ने अपने सिर में 9 mm की रिवाल्वर से तीन गोलियां ठोक डालीं। चैनल की खबर के मुताबिक यह बुज़ुर्ग बिमारीयों की वजह से निराश था, और शायद इसी लिये उसने ऐसा किया।अब बुज़ुर्ग तो ICU में है और शल्यचिकित्सा के बाद सकुशल बाकी की ’सज़ा-ए-ज़िन्दगी’ काटने की तैयारी कर रहा है। यह अपने आप में शायद काफ़ी आश्चर्यजनक घटना है,परंतु मेरे ज़ेहन में एक बचपन में सुनी कहानी कौन्ध गई।अब ये कहानी कितनी "सच" या "झूंठ" है, और इसका उपरोक्त खबर से कितना लेना देना है, ये मैं अपने विवेक को बिना कष्ट दिये सुधी पाठकों के निर्णय पर छोड देता हूं, और कथा कहता हूं।




कई युगों पुरानी बात है, एक साधु और उसका शिष्य,जो जीवन दर्शन को ज्योतिष और देशाटन के माध्यम से समझने में जुटे हुये थे, गांव-गांव,नगर-नगर घूम कर अपना जीवन व्यतीत करते हुये फ़िरते थे,और जो कुछ मिल जाता उससे अपनी ज़िन्दगी की गुजर बसर करते थे।ये वो समय था जब Education इतनी Formal नहीं थी कि उसके लिये पैसे लगते हों ,बस गुरु के साथ साथ फ़िरो, जीवन जैसा उसका है, जियो और बस gain the knowledge of life!(इतना सिम्पल नहीं था!शायद!) खैर हमें इस सब से क्या! 


एक दिन जब घूमते घूमते दोनों एक मरुस्थल को पार कर रहे थे,चेले का पैर एक मानव खोपडी से टकराया,उसने कौतूहल वश उसे उठा कर अपनी झोली में डाल लिया।रात में जब एक सराय में दोनों ने भोजन आदि करने के बाद आराम करने की मुद्रा पकडी तो शिष्य ने उचित समय जान कर गुरु से कहा,’ गुरू जी!,मस्तक रेखाओं को पढ कर भी मनुष्य का ,वर्तमान ,भविष्य और भूतकाल जाना सकता है, न? गुरु ने कहा हां हो तो सकता है।इस पर उत्साहित हो कर चेले ने लपक कर अपनी झोली से वही मानव खोपडी जो दोपहर उसने उठा कर अपनी झोली में डाल ली थी,निकाल लाया और गुरू जी के चरणों पर रख दी।निवेदन करते हुये बोला गुरू जी आज इस गोपनीय ञान से मुझे अवगत करा ही दो।आपसे निवेदन है कि,इस मानव कपाल की रेखाओं को पढकर इसका भूत,वर्तमान और भविष्य बांचों और मुझे भी सिखाओ।


(I am sure चेले ने उन दिनों प्रचलित तरीके से यह भी ज़रूर कहा होगा,Pleezzzzee!)


गुरू महान था और अपने शिष्य का अनुरोध मान कर बोला जरा प्रकाश की व्यवस्था कर।
कुछ देर रेखाओं की गहन भाषा में तल्लीन रहने के बाद, गुरू ने कहा,


"देश चोरी,मरुस्थल मृत्यु,अभी कुछ बाकी है!"


शिष्य ने कहा गुरू जी थोडा प्रकाश डालें।गुरू जी ने समझाते हुये कहा,इस व्यक्ति का भूतकाल कहता है, कि अपने देश(निवास स्थान) में चोरी करने के बाद वहां से भागते भागते, मरुस्थल में जा कर मृत्यु को प्राप्त होगा,जो इसका वर्तमान है, और इसका भविष्य कहता है कि इतने पर भी इसकी कर्म गति पूर्ण नहीं होगी,भविष्य में कुछ और भी घटित होगा।


शिष्य जो जाहिर है अभी उतना knowledgeable नहीं था बोला,’हे प्रभू, मृत्यु के बाद भी शरीर के साथ कुछ और क्या बाकी हो सकता है?’इस पर गुरू बोले न तो तू इतना पात्र है, और न मैं इतना ञानी कि तेरी इस शंका का  मैं समाधान कर सकूं अतः तेरी और इस कपाल की भालाई इसी में है, कि तू इस को इसके हाल पर छोड, और गुरू सेवा में लीन हो कर, जरा मेरे चरणों का चम्पन कर! 


शिष्य तुरंत आदेशानुसार गुरू जी की सेवा में जुट गया।कुछ ही पलों में गुरू जी निद्रा देवि की शरण में लीन हो गये।
पर चेला तो, चेला था पूरी रात नींद जैसे आंखों को छूने से भी मना कर रही हो! जागता रहा और सोचता रहा, अब क्या बाकी है, इस निर्जीव मनाव कपाल के लिये?क्या मृत्यु के बाद भी शरीर की कोई गति सम्भव है?क्या गुरू जी का ग्यान सच्चा है?क्या जो उन्होने कहा सच होगा?


इसी उधेड बुन में पूरी रात कट गई, पर न कोई उत्तर मिला और न मन को चैन, पर करता क्या बेचारा!प्रातः होते ही गुरु के आदेशानुसार सभी दैनिक कार्यों से निवृत हो कर ,जब चलने लगे तो गुरु जी की अनुमति लेकर कहा गुरु जी आप अग्रसर हों, मैं तुरंत ही आप का अनुसरण करता हूं। गुरू जी जो दयालु और अनन्य प्रेम करने वाले थे, शिष्य का कहा मान कर चल पडे। थोडी दूर ही पहुंच पाये थे कि हांफ़ता और भागता हुया चेला भी पीछे से आ पहूंचा और दोनों एक नये दिन और नई नगरी को चल पडे। 


दिन ढलने पर जब पुनः रात्रि विश्राम की बारी आई तो चेले ने गुरू जी की चरण सेवा प्रारंभ करते ही पूछा,
’गुरू जी क्या आपने कल जो कहा वो सत्य होगा?मेरा तात्पर्य उस मानव कपाल के बारे मैं है?
इस पर गुरु जी बोले वत्स तू यह शंका किस पर कर रहा है,मेरे कथन की सत्यता पर या ज्योतिष के ञान पर?
शिष्य बोला, प्रभु माफ़ करें इस समय तो दोनो पर ही शंका हो रही है। आपको याद होगा आज सुबह चलने से पहले मैं आपकी अनुमति लेकर कुछ समय बाद आपके साथ आया था!उस दौरान मैने उस कपाल को सराय की ओखली में डाल कर मूसल से कूट कूट कर चूर्ण बना दिया, और चूर्ण को नदी मे प्रवाहित भी कर दिया! अब बतायें गुरु जी इस स्थिति में अब क्या बाकी है, उस कपाल का? गुरू ने मंद मुस्कुराते हुये कहा ,जो बाकी था तूने माध्यम बन कर पूरा कर तो दिया। शायद अब कुछ बाकी न हो!


यह तो रही कहानी की बात! मेरी शंका यह है,कि मृत्यु के बाद की गति की बात बेमानी है! असल मुद्दा है,कि जीवन की सज़ा पाये हुये लोगों कि गति का क्या मार्ग है, आइये इस प्रयास में लगें। और हां उन बुजुर्ग के साथ मेरी संवेदनाये जिन्हे शायद जीवन की जेल से कुछ दिन की पैरोल तो मिल जाये (कोमा में) पर उनकी रिहाई तो मेडिकल साईंस और किस्मत ने मिल कर रोक ही दी,अभी और क्या बाकी है, इस विषय पर आजकल का ज्योतिष शायद उतना विकसित नहीं रहा!

Saturday, June 26, 2010

नसीब !

ज़िन्दगी अच्छी है,
पर अज़ीब है न?

जो बुरा है,
कितना लज़ीज़ है न?

गुनाह कर के भी वो सुकून से है,
अपना अपना ज़मीर है न?

मैं तुझीसे मोहब्बत करता हूं
आखिर मेरा भी रकीब है न?

कैसे उठाऊं मै नाज़ तेरा,
कांधे पर सलीब है न?

उसका दुश्मन कोई नहीं है यहां
वो सच मे कितना बदनसीब है न?

सोना चांदी बटोरता रहता है,
बेचारा कितना गरीब है न?

दर्द पास आयेगा कैसे,
तू तो मेरे करीब है न?





Wednesday, June 23, 2010

ज़िन्दगी को उसकी कहानी कहने देते हैं,
चलो हम अपने शिकवे रहने देते है।

सच और झूंठ का फ़र्क तो फ़िर होगा,
दोस्तों को उनकी बात कहने देते है।

बुज़ुर्गों पे चलो इतना अहसान करें 
बुढापे में उन्हे पुराने घर में रहने देते है।

दर्द में भी खुशी तलाश तो ली थी,
ख्याब मुझको कहां खुश रहने देते है?

Thursday, June 10, 2010

पेड! "बरगद" का!

आपने बरगद देखा है,कभी!

जी हां, ’बरगद’, 

बरर्गर नहीं,

’ब र ग द’ का पेड!

माफ़ करें,
आजकल शहरों में,
पेड ही नहीं होते,
बरगद की बात कौन जाने,

और ये जानना तो और भी मुश्किल है कि,
बरगद की लकडी इमारती नहीं होती,

माने कि, जब तक वो खडा है,
काम का है,

और जिस दिन गिर गया,
पता नही कहां गायब हो जाता है,

मेरे पिता ने बताया था ये सत्य एक दिन!
जब वो ज़िन्दा थे!

अब सोचता हूं, 


मोहल्ले के बाहर वाली टाल वाले से पूछुंगा कभी,
क्या आप ’बरगद’ की लकडी खरीदते हो?


भला क्यों नहीं?


क्या बरगद की लकडी से ईमारती सामान नहीं बनता?


 पता नहीं क्यों!




Friday, May 21, 2010

इसे कोई न पढे!

थाली के बैगंन,
लौटे,
खाली हाथ,भानुमती के घर से,
बिन पैंदी के लोटे से मिलकर,
वहां ईंट के साथ रोडे भी थे,
और था एक पत्थर भी,
वो भी रास्ते का,
सब बोले अक्ल पर पत्थर पडे थे,
जो गये मिलने,पत्थर के सनम से,

वैसे भानुमती की भैंस,
अक्ल से थोडी बडी थी,
और बीन बजाने पर,
पगुराने के बजाय,
गुर्राती थी,
क्यों न करती ऐसा?
उसका चारा जो खा लिया गया था,

बैगन के पास दूसरा कोई चारा था भी नहीं,
वैसे तो दूसरी भैंस भी नहीं थी!
लेकिन करे क्या वो बेचारा,
लगा हुया है,तलाश में
भैंस मिल जाये या चारा,
बेचारा!


बीन सुन कर 
नागनाथ और सांपनाथ दोनो प्रकट हुये!
उनको दूध पिलाने पर भी,
उगला सिर्फ़ ज़हर,
पर अच्छा हुआ के वो आस्तीन में घुस गये,
किसकी? आज तक पता नहीं!
क्यों कि बदलते रहते है वो आस्तीन,
मौका पाते ही!
आयाराम गयाराम की तरह।

भानुमती के पडोसी भी कमाल के,
जब तब पत्थर फ़ेकने के शौकीन,
जब कि उनके अपने घर हैं शीशे के!



सारे किरदार सच्चे है,
और मिल जायेंगे
किसी भी राजनीतिक समागम में
प्रतिबिम्ब में नहीं, 
नितांत यर्थाथ में।

Tuesday, May 18, 2010

खामोशी!

कभी खामोश रह कर 




सुनो तो सही,




क्या कहती है?




मेरी ये 


खामोशी!


पर अफ़सोस ये है कि,
तुम्हारे तर्क वितर्क के शोर से से घबरा कर,


अक्सर 


खामोश ही रह जाती है 








मेरी 



खामोशी!

Friday, May 14, 2010

’छ्ज्जा और मुन्डेर’

कई बार 
शैतान बच्चे की तरह
हकीकत को गुलेल बना कर
उडा देता हूं, 
तेरी यादों के परिंद
अपने ज़ेहन की, 

मुन्डेरो से,

पर हर बार एक नये झुंड की
शक्ल में 
आ जातीं हैं और
चहचहाती हैं  




तेरी,यादें


और सच पूछो तो 

अब उनकी आवाज़ें
टीस की मानिन्द चुभती सी लगने लगीं है।


मैं और मेरा मन 
दोनो जानते हैं,
कि आती है
तेरी याद,
अब मुझे,ये अहसास दिलाने कि


तू नहीं है,न अपने 


छ्ज्जे पर 



और न मेरे आगोश में।

Friday, May 7, 2010

प्राइस टैग!

अच्छा लगता है,
टूट कर,
बिखर जाना,
बशर्ते,
कोई तो हो
जो,


सहम कर,
हर टुकडा
उठा कर
दामन में रख ले.
कीमती समझ कर!


पर,




अकसर देखा है,
घरों में,
कीमती और नाज़ुक
चीज़ों पे
प्राइस टैग नहीं होते.!


और लोग खामोश गुजर जाते हैं,
चीजों के किरच -किरच हो कर बिखर जाने पर भी!







Wednesday, May 5, 2010

प्लीज़!

इस बार ऐसा करना,


जब बिना बताये आओ,


किसी दिन

तो 
चुपचाप
चुरा कर ले जाना,

जो कुछ भी,
तुम्हें लगे,
कीमती,

मेरे घर,
जेहन,
या शख्शियत में,

प्लीज़!

गर ये भी न हो पाया,


(कि तुम्हे कुछ भी कीमती न लगे)


तो ,
मैं,


टूट जाउंगा,

क्यों कि सुना है,


मुफ़लिसी 


इन्सान को


खोखला कर देती है!



Tuesday, May 4, 2010

आप ही कहो,क्या सच है?

औरतें भी इन्सान जैसी हो गईं है,
माँ थीं वो, हैवान जैसी हो गईं हैं!

निरुपमा ने ये शायद  सोचा नहीं था,
आधुनिकता परिधान जैसी हो गई है।

माधुरी को भी ये कब पता था,
अय्यारी ईमान जैसी हो गई है।

खिलखाती खेलती थी बेटी मेरी,
खबरें सुन कर,हैरान जैसी हो गई है। 

Saturday, May 1, 2010

गद्दारी, सच में!

पैसे को हमने इस तरह भगवान कर दिया,
मक्कारी को इंसान ने ईमान कर लिया।

हमने तो उनको हाकिम का दर्ज़ा अता किया,
इज़्ज़त को सबकी,उसने पावदान कर लिया।


मिट्टी में देश की क्या अब खुशबू नहीं बची,
चंद हरकतो ने इसको नाबदान कर दिया।

यकीनन सदा से ही औरत, तस्वीरे वफ़ा है 
एक गद्दार ने इस यकीं को बदनाम कर दिया।

Thursday, April 29, 2010

रंग कैसे कैसे!


 सबसे नयी और रियल  अभिनेत्री {Reality Show at Islamabad (D) Fame}
 माधुरी जी के (अ) सम्मान में !


लहर खुद ही तूफ़ां से जाकर मिल गई!
कश्तियां करती रहीं साहिल की बात।


Monday, April 26, 2010

नास्तिक होने का सच!


आप किसी नास्तिक से मिले है कभी?
मैं भी नहीं मिला,किसी सच्चे और प्योर हार्ड कोर नास्तिक से,
जितने भी तथाकथित ’नास्तिक’,मुझे मिले,

वे सब वो लोग थे,
जो जीवन की सभी मूलभूत सुविधाओं,
आरामदायक जीवन के साधनों,
का उपयोग करते हुये,
विचारों की कबब्डी खेलने के शौकीन थे,

एक भी ऐसा इंसान,जो जीवन संघर्ष में लगा हो,
या  किसी भी प्रकार के अभाव से जूझ रहा हो,
परम शक्ति के अस्तित्व को नकारता नहीं मिला,

तो मुझे लगा कि,
ईश्वर की सत्ता को नकारने वाले लोग,
या तो वे हैं,जो स्वयं की सत्ता को मनवाना चाहते है,

या वो जिनके पास,
मानवीय बुद्धि का, वो टेढा पहलू है कि,
वो परमात्मा की सत्ता को नकार कर,
झूठे आंनद का मज़ा लेते हैं.

इन्हीं में से ’एक’ नास्तिक को जब मैने,
यही अपना  तर्क दिया तो झुंझलाकर बोला,
Thank God  I am a 'Rational Man'!
UNLIKE YOU!



चित्र_ मत्स्यावतार By "Isha" in Madhubani Style.


Wednesday, April 21, 2010

मुर्ग मुस्सलम और पानी!

खुली जगह जैसे लान या टेरस आदि में रखें 










































Select a Pot which is wide enough for the birds .












मेरे एक अज़ीज़ दोस्त का 
SMS आया,
लिखा था,

"भीषण गर्मी है,
भटकती चिडियों के लिये,
आप रखें,


खुली जगह,और बालकनी में,
पानी!"


"ईश्वर खुश होगा,
और करेगा,
आप पर मेहरबानी!"

मैं थोडा संजीदा हुया,
और लगा सोचने,

मौला! ये तेरी कैसी कारस्तानी?
ये मेरा जिगर से प्यारा दोस्त,
मुझसे क्यूं कर रहा है,छेडखानी!

पूरे का पूरा मुर्ग खा जाता है,
वो भी सादा नहीं,सिर्फ़ ’मुर्ग मसाला-ए-अफ़गानी’

तो क्या कहूं इसे,
इंसान की नादानी?
या दस्तूर-ए-दुनिया-ए-फ़ानी! 

कैसा दिल है इंसान का?
मुर्ग को ’मसाल दानी’!
और भटकते परिंदो को "पानी"!
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PS: Immediately after the writing this, thought I  kept the Pots as seen in the post. You all may like to do the same, because jokes apart we will help the poor birds by doing so:


वैसे भी :
एक ने कही, दूजे ने मानी,
गुरू का कहना दोनो ज्ञानी| 



Monday, April 19, 2010

सच में!

धन और सम्पदा,


आपको

आसानी से मरने नहीं देगी ,


सच है.


परन्तु

सच ये भी है,

कि,

यह आप को,

आसानी से,






जीने भी नहीं देगी!


अब थरूर और मोदी को ही ले लो!





Thursday, April 15, 2010

घर और वफ़ा!

मोहब्बतों से घरों को दुआयें मिलतीं हैं,
जो सच्चे लोग हैं उनको वफ़ायें मिलतीं है|

दर्द मिलने पे भी मुस्कुरा कर देखो!
रोने वालो को कडवी दवायें मिलती है|

कभी बीवी को भी वो ही सम्मान तो दो,
एक दम मां वाली दुआयें मिलती हैं|

उन के किरदार में ही कुछ कमी होगी,
कैसे लोग हैं जिन्हें घर से ज़फ़ायें मिलती है?



Tuesday, April 13, 2010

"सच में" यहां भी!

"सच में" के वो पाठक जो Word Press पर पढना पसंद करते हैं, नीचे दिए पते पर इन्ही रचनाओं का आनन्द  ले सकते हैं! 

http://ktheleo.wordpress.com/

Saturday, April 10, 2010

शायद इसी लिये!

तेरे थरथराते कांपते होठों पर,
मैंने कई बार चाहा कि,
अपनी नम आंखे,
रख दूं!

पर,

तभी बेसाख्ता  याद आया  
भडकती आग पर,
घी नही डाला करते!


मुझे यकीं है के,
तेरे भी ज़ेहन में,
अक्सर आता है,
ये ख्याल के 

तू भी,

कभी तो!


मेरे ज़ख्मों पे दो बूंद 
अपने आंसुओं की गिरा दे,

पर मैं जानता हूं
के तू भी डरता है,
भडकती आग में 
घी डालने से!

Wednesday, April 7, 2010

वफ़ा की नुमाइश!



कैसे किसी की वफ़ा का दावा करे कोई,
शोएब है कोई तो, है आयशा कोई|

जिस्मों की नुमाइश है यहां,रिश्तों की हाट में ,
खुल के क्यों  न जज़बातो, का सौदा करे कोई!

खुद परस्ती इस कदर के अखलाक ही गुम है
कैसे भी हो इन्सान को सीधा करे कोई| 


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आप से गुजारिश है कि एक नज़र मेरे एक बहुत पुराने ख्याल पर भी डालें जो ऊपर लिखी रचना के संदर्भ में  और भी Relevant हो जाता  है! 

सच गुनाह का!

तेरा काजल जो 
मेरी कमीज़ के कन्धे पर लगा रह गया था,
अब मुझे कलंक सा लगने लगा है.

क्या मैं ने अकेले ही
जिया था उन लम्हों को?
तो फ़िर इस रुसवाई में,
तू क्यों नही है साथ मेरे!

क्या दर्द के लम्हों से मसर्रत 
की चन्द घडियां चुरा लेना गुनाह है,
गर है! तो सज़ा जो भी हो मंज़ूर,

गर नही!तो,

’गुनाह-ए-बेलज़्ज़त, ज़ुर्म बे मज़ा’
कैसा मुकदमा,और क्यूं कर सज़ा?’