"आज हम तो कल तुम्हारी बारी है, चँद रोज़ की मेहमाँ ये जवानी है!" From left to right: Ms Nanda,Ms Vahida Rahmaan,Ms Helen & Ms Babita |
ये सब हैं चाहने वाले!और आप?
Wednesday, September 7, 2011
आज हम तो कल तुम्हारी बारी है!
Monday, August 22, 2011
Tuesday, August 16, 2011
वीराने का घर
लोग बस गये जाकर वीराने में,
सूना घर हूँ मैं बस्ती में रह जाउँगा।
तुम न आओगे चलों यूँ ही सही,
याद में तो मैं तुम्हारी आऊँगा।
पी चुका हूँ ज़हर मैं तन्हाई का,
पर चारागर कहता है,के बच जाउँगा।
कह दिया तुमने जो तुम्हें अच्छा लगा,
सच बहुत कडवा है,मैं न कह पाउँगा।
तुमको लगता है कि मैं बरबाद हूँ,
आइना रोज़े महशर तुम्हें दिखलाऊँगा।
Saturday, August 13, 2011
Sunday, July 31, 2011
वजह आँसुओं की...!
तुम्हें याद होगा,
अपना, बचपन जब,
हम दोनों खिल उठते थे,
किसी फ़ूल की मानिन्द!
अकसर बे वजह,
पर कभी कही गर मिल जाता था.
कोई एक..
कभी तितली या मोर का पंख,
कभी अगरबत्ती का रैपर,
कभी नई डाक टिकट,
कभी इन्द्रधनुष देख कर,
और कभी कभी तो,
सिर्फ़
मेंढक की टर्र टर्र,
सुन कर ही हो जाता था!
ये कमाल
अरे कमाल ही तो है,
दो मानव मनो का पुल्कित हो जाना,
तुम्हें याद होंगी,
वो तपती दोपहरें,
जब वो शहतूत का पेड,
मगन होता था,
कोयल की बात में,और,
मैं और तुम चुरा लेते थे,
न जाने कितने पल,
उस गर्म लू की तपिश से,
उफ़्फ़!!!!
तुम्हारे चेहरे का वो
सुर्ख लाल हो जाना,
मुझे तो याद है,अब तक...!
और वो एक दिन,
जुलाई का,
शायद ’छब्बीस’ थी,
सावन के आने में
देर थी अभी,
पर तुम्हारे दर्द
के बादल,बरस गये थे,
क्यों रोईं थीं तुम,
जब कि मालूम था,कुछ नहीं बदलने वाला,
आज जब,ज़िन्दगी की शाम हैं,
जनवरी की तेरह,
मैने जला लिये हैं,
यादों के अलाव,
इस उम्मीद में कि
तपिश यादों की ही सही,
दे सके शायद कुछ सुकूँ,
वही गीली लकडियाँ
उसी शहतूत की,
धूआँ दे रही हैं,शायद,
और ये वजह है,मेरे आँसुओं की
और मैं फ़िर सोचता हूँ,
एक दम तन्हा,
क्यों रोईं थीं तुम उस दिन...........!
छब्बीस थी शायद, वो जुलाई की!
Saturday, July 23, 2011
हक़ीक़तन! एक बार फ़िर!
मैं तुम्हारा ही हूँ,कभी आज़मा के देखो.
अश्क़ का क़तरा हूँ,आँखों में बसाकर देखो.
गर तलाशोगे,तुम्हें पहलू में ही मिल जाऊँगा,
मैं अभी खोया नही हूँ,मुझको बुला कर देखो.
तुमको भूलूँ और,कभी याद ना आऊँ तुमको,
ऐसी फ़ितरत नहीं, यादों में बसा कर देखो.
मैं नही माँगता दौलत के खजाने तुम से,
मचलता बच्चा हूँ, सीने से लगा कर देखो.
मेरे चहेरे पे पड़ी गर्द से मायूस ना हो,
मैं हँसी रूह हूँ ,ये धूल हटाकर देखो.
Sunday, July 10, 2011
अल्ल बल्ल गल्ल...........!!!!!
अब कहाँ से लाऊँ,
हर रोज़ नये लफ़्ज़,
जो आपको,भायें!
मेरी कवितायें,
आपको पसंद आयें!
हैं कहाँ, लफ़्ज,
जो बयाँ कर पायें,
दास्ताँने हमारी और आपकी,
हम सब,और उन सबकी,
दर असल सारी की सारी कहानी,
घूमती है,एक छोटे से दायरे के इर्द गिर्द,
चन्द लफ़्ज़ों और जज़्बातों के चारों ओर,
गोल गोल एक बवंडर के माफ़िक,
लफ़्ज़ भी जाने पहचाने हैं,
और जज़्बात भी,
फ़िर भी इंसान है तलाश में,
कुछ नये की!
शब्द अल्बत्त्ता सब पुराने हैं,
अपने ही मौहल्ले के बाशिन्दों के चेहरों की माफ़िक,
यकीं नहीं है,
तो जरा इन लफ़्ज़ों से ,
नज़र बचा कर दिखाओ!!!
मोहब्बत,
मज़बूरी,
हालात,
कमज़ोरी,
हिम्मत,
दौलत,
दस्तूर,
जज़्बात,
.....
......
.......
........
जवानी,
अमीरी,
गरीबी,
इसकी,उसकी
भूख प्यास ,सुख ,दुख....
और तमाम दुनिया भर की,
अल्ल बल्ल गल्ल.................!
हर रोज़ नये लफ़्ज़,
जो आपको,भायें!
मेरी कवितायें,
आपको पसंद आयें!
हैं कहाँ, लफ़्ज,
जो बयाँ कर पायें,
दास्ताँने हमारी और आपकी,
हम सब,और उन सबकी,
दर असल सारी की सारी कहानी,
घूमती है,एक छोटे से दायरे के इर्द गिर्द,
चन्द लफ़्ज़ों और जज़्बातों के चारों ओर,
गोल गोल एक बवंडर के माफ़िक,
लफ़्ज़ भी जाने पहचाने हैं,
और जज़्बात भी,
फ़िर भी इंसान है तलाश में,
कुछ नये की!
शब्द अल्बत्त्ता सब पुराने हैं,
अपने ही मौहल्ले के बाशिन्दों के चेहरों की माफ़िक,
यकीं नहीं है,
तो जरा इन लफ़्ज़ों से ,
नज़र बचा कर दिखाओ!!!
मोहब्बत,
मज़बूरी,
हालात,
कमज़ोरी,
हिम्मत,
दौलत,
दस्तूर,
जज़्बात,
.....
......
.......
........
जवानी,
अमीरी,
गरीबी,
इसकी,उसकी
भूख प्यास ,सुख ,दुख....
और तमाम दुनिया भर की,
अल्ल बल्ल गल्ल.................!
Tuesday, July 5, 2011
"पेड या ताबूत"
आपको याद है न,
वो पेड!
नहीं! बरगद का नहीं!
अरे!
वो! जो आप सब के साथ,
जवाँ हुआ था,
अरे वो ही!
जो पौधे से वृक्ष बनने की कथा,
बडे दिलचस्प अँदाज़ मे बयाँ करता था!!
जिस के नीचे,
कई प्रेमी जोडे,
कभी न बिछ्डने की
कसम खा के,गये
और फ़िर कभी
लौट के न आये,
’एक साथ’!
और जो गुहार लगाता था,
कि अगर कुछ नहीं हो सकता,
तो मुझे जाने दो,
पेपर मिल के आहते में,
और बन जाने दो,
हिस्सा उस कहानी का जो,
लिखी जाये मेरे सफ़ों पे,
अब पेड नहीं रहा,
टिम्बर बन गया,
वो पिछले हफ़्ते,
सुना हैं,
एक ताबूत बनाने वाली फ़र्म को मिला है
ठेका!
उस जीते जागते दरख्त को,
ताबूतों मे तब्दील कर देने का,
ताकि ताज़िन्दगी जो,
बात करता रहा "ज़िन्दगी" की,
उसे भी!
एहसास तो हो कि,
मौत भी कितनी हसीन और अटल सच्चाई है!
Sunday, May 29, 2011
बता तो सही कौन है तू?
घुमड रहा है,
गुबार बन के कहीं,
अगर तू सच है तो,
ज़ुबाँ पे आता क्यों नही?
सच अगर है तो,
तो खुद को साबित कर,
झूंठ है तो,
बिखर जाता क्यों नहीं?
आईना है,तो,
मेरी शक्ल दिखा,
तसवीर है तो,
मुस्कुराता क्यों नहीं?
मेरा दिल है,
तो मेरी धडकन बन,
अश्क है,
तो बह जाता क्यों नहीं?
ख्याल है तो कोई राग बन,
दर्द है तो फ़िर रुलाता,
क्यों नही?
बन्दा है तो,
कोई उम्मीद मत कर,
खुदा है तो,
नज़र आता क्यों नहीं?
बात तेरे और मेरे बीच की है,
चुप क्यों बैठा है?
बताता क्यों नहीं?
Friday, May 20, 2011
गुलाब का फूल!(व्यापारी और’गुलाब प्रेमी’ क्षमा करें!)
आपने कभी सोचा है?
गुलाब का फूल कभी भी
जंगल मे नही खिलता,
क्यों भला?
वैसे गुलाब की एक किस्म होती तो है,
जिसे "जंगली" गुलाब कहते है!
पर वो भी कभी जंगल में नही होती,
गुलाब दरअसल बहुत ही,
संवेदनशील होता है!,
मैं वनस्पति विज्ञान का जानकार तो नहीं,
पर गुलाब की फ़ितरत जानता हूँ,
और यकीन मानिये, मैं आप सब से ज्यादा,
जंगलों मे घूमा हूँ!
(वन विभाग वाले माफ़ कर दें तों!)
दरअसल "गुलाब" को पता होता है, कि कौन,
"कौन" है?
वो फ़र्क कर सकता है,
गुलकँद के व्यापारी ,
गुलाब जल के थोक विक्रेता
और,
मासूम प्रेमी के बीच,
यदि ऐसा न होता तो,
"..................................
मुझे तोड लेना वन माली,
उस पथ पर देना तुम फ़ेंक,...
.......................................
.......................................
...."
कभी न लिखी गई होती!
मेरे एक कमरे वाले
किराये के घर पर,
कभी आना,
"गुलाब" से मिलवाऊँगा!
Monday, May 16, 2011
शायद मेरी तनहाई आपको रास न आये!
आप, मेरी तन्हाई पे तरस मत खाना,
मैं तन्हा हूँ नहीं,
मेरे तमाम साथी
दर्द,दुश्मनों की दुआयें,
दोस्तों की बेवाफ़ाई,गम-ओ-रंज़,
मुफ़लिसी,और "सनम की याद"!
बस अभी अभी,
ज़रा देर पहले ही...
बस यूँ ही ज़रा..
निकले हैं,
ताज़ा हवा में सासं लेने के लिये,
अब आप ही बताओं,
ज़रा सोच कर!
"ताज महल" लाख,
खूबसूरत और हवादार हो!
"मकबरा" आखिर "मकबरा" होता है!
और ज़िन्दा "शै" वहाँ कितनी देर बिता,सकते है?
और वो भी लगातार बिना,
इस अहसास के साथ,
के ज़िन्दगी चलती रहती है
बिना ,उनके अहसास के साथ भी,
जो ज़िन्दा नहीं हैं!!!!
ज़िन्दा रहने के लिये,
ज़रूरी है,"ताज़" की खूबसूरती,
’दर्द’, ’रंज़’,’गम’तो आते जाते हैं!
ये सारे के सारे ज़िन्दा हैं,
और मेरे साथ हैं!
बस अभी अभी ज़रा!!!
यूँ ही ज़रा..............
मैं तन्हा नहीं हूँ!
Saturday, May 7, 2011
मै और मेरी तिश्नगी!
मेरी तिश्नगी ने मुझको ऐसा सिला दिया है,
बरसात की बूँदों ने ,मेरा घर जला दिया है।
मैने जब भी कभी चाहा, मेरी नींद संवर जाये,
ख्वाबों ने मेरे आके ,मुझको जगा दिया है।
मेरी किस खता के बदले,मुझे ऐसी खुशी मिली है,
मेरी आँख फ़िर से नम है,मेरा दिल भरा भरा है।
मै अकेला यूँ ही अक्सर, तन्हाइयों में खुश था,
तूने मेरे पास आ के, मुझको फ़ना किया है।
जो खुशी मुझे मिली है, इसे मैं कहाँ सजाऊँ,
कहीं जल न जाये दामन, मेरा दिल डरा डरा है।
Thursday, April 28, 2011
समुन्दर के किनारे!
कल शाम मैं समुन्दर के साथ था,
बडी ही अजीब बात है,
न तो मैं वहाँ उसके बुलावे पे गया था,
और न ही मुझे उम्मीद थी कि,
मैं कभी मिल पाऊगाँ,
"समुन्दर"जैसी बडी शैह से!
पर हर लम्हा जो मैं गुजार आया,
’समुन्दर’ के साथ,
अपने आप में ’एक मुकम्मल ज़िन्दगी’है!
आप को गर यकीं न आये,
तो अभी बंद करिये अपनी आँखें,
और मुकम्मल तन्हाई में,
कोशिश कीजिये,
समुन्दर को
सुनने की,
सूघंने की ,
अपनी ज़िल्द पर उसकी,
ठंडी मगर खारी हवा,
को महसूस करने की,
यकीं मानिये,
समुन्दर से गहरा और शांत कुछ भी नही!
और हम सब,
फ़िरते है यहाँ से वहाँ
लिये अपना अपना,
एक एक समुन्दर
प्यासे और अशांत!
और बेखबर भी कि,
हम सब एक समुन्दर है!
Thursday, April 14, 2011
तकलीफ़-ए-रूह!(एक बात बहुत पुरानी!)
चारागर मशरूफ़ थे ,ईलाज़े मरीज़े रूह में,
बीमार पर जाता रहा ,तकलीफ़ उसको जिस्म की थी।
बाद मरने के भी , कब्र में है बेचॆनी,
वो खलिश अज़ीब किस्म की थी।
किस्सा गो कहता रहा ,रात भर सच्ची बातें,
नींद उनको आ गई ,तलाश जिन्हे तिलिस्म की थी।
***********************************************************************************
शब्दार्थ:
चारागर : हकीम (Local Doctor)
बीमार पर जाता रहा ,तकलीफ़ उसको जिस्म की थी।
बाद मरने के भी , कब्र में है बेचॆनी,
वो खलिश अज़ीब किस्म की थी।
किस्सा गो कहता रहा ,रात भर सच्ची बातें,
नींद उनको आ गई ,तलाश जिन्हे तिलिस्म की थी।
***********************************************************************************
शब्दार्थ:
चारागर : हकीम (Local Doctor)
मशरूफ़ :वयस्त ( Engaged)
खलिश :दर्द की चुभन (Pain)
किस्सा गो :कहानी सुनाने वाला (Story Teller)
तिलिस्म :जादू (Magic)
***********************************************************************************
Sunday, March 27, 2011
"मुकम्मल सुकूँ"!
चुन चुन के करता हूँ,
मैं तारीफ़ें अपने मकबरे की ,
मर गया हूँ?
क्या करूं !
ख्वाहिशें नहीं मरतीं!
गुज़रता हूँ,रोज़,
सिम्ते गुलशन से,
गुल नहीं,
बागवाँ नहीं,
तितलियाँ फ़िर भी,
यूँ ही आदतन,
तलाशे बहार में हैं!
न तू है,
न तेरी याद ही, बाकी कहीं,
फ़िर भी मैं हूँ,के,
तन्हा या फ़िर,
घिरा सा भीड में,
अपनी तन्हाई या तेरी यादों की!
मर के भी इंसान को,
मिल सकता नहीं,
सुकूँ जाने,
किस तरह अता होता है,
जिस्म-ओ-रूह दोनो ही,
तलाशा करते हैं,
एक कतरा,एक टुकडा, मुकम्मल सुकूँ!
गर सुने 'पुर सुकूँ' हो कर कोई,
तो सुनाऊँ दास्ताँ अपनी कभी,
पर कहाँ मिलता अब,
एक लम्हा,एक घडी,
"मुकम्मल सुकूँ"!
Wednesday, March 16, 2011
मौसम-ए-बहार और अश्क!
आम के बौर की खुशबू,उसे समझाऊँ कैसे,
शहर में रहता है उसे बाग तक लाऊँ कैसे।
अक्सर वो यूँही मेरी बात से डर जाता है,
बडा मासूम है,अहदे जहाँ सिखाऊँ कैसे।
मेरी फ़ितरत ही अज़ब है हवा का झोका हूँ,
वो हसीं ख्याब है मैं उसको जगाऊँ कैसे।
दस्तूर,समझदारी, इल्म, किताबें और उसूल,
दिल मगर नाँदा है,दिल को समझाऊँ कैसे।
आँखें उसकी मोहब्बत से भरी रहती हैं,
खारा अश्क हूँ, उस आँख में आऊँ कैसे।
Saturday, March 12, 2011
अश्रु अंजलि!(जापान को)
जब भी कोशिश करता हूँ,
गर्व करने की,
कि मैं इंसान हूँ!
एक थपेडा,
एक तमाचा कुदरत का,
हल्के से ही सही,
कह के जाता है,
कि "मैं" बलवान हूँ!
हर समय ये याद रखना,
"मैं",
वख्त हूँ कभी,
कुदरत कभी,
इंसानी फ़ितरत कभी,
और कभी आखिर में
"मै" ही भगवान हूँ!
सब तेरे मंसूबे,
तकनीकें
सलाहियत तेरी,
बस टिकी है,
एक घुरी पे,
घूमती है जिसके सहारे
तेरी दुनिया,
और ज़मीं,
इस ज़मीं के पार
जब कुछ भी नही,
शून्य और अस्तित्व के परे,
मैं ही आसमान हूँ।
Tuesday, March 1, 2011
’दाग अच्छे हैं!’
रोना किसे पसंद?
शायद छोटे बच्चे करते हो ऎसा?
आज कल के नहीं
उस समय के,
जब बच्चे का रोना सुन कर माँ,
दौड कर आती थी,
और अपने आँचल में छुपा लेती थी उसे!
अब तो शायद बच्चे भी डरते है!
रोने से!
क्या पता Baby sitter किस मूड में हो?
थप्पड ही न पडे जाये कहीं!
या फ़िर Creche की आया,
आकर मूँह में डाल जाये comforter!
(चुसनी को शायद यही कहते हैं!)
अरे छोडिये!
मैं तो बात कर रहा था, रोने की!
और वो भी इस लिये कि,
मुझे कभी कभी या यूँ कह लीजिये,
अक्सर रोना आ जाता है!
हलाँकि मै बच्चा नहीं हूँ,
और शायद इसी लिये मुझे ये पसंद भी नही!
पर मैं फ़िर भी रो लेता हूँ!
जब भी कोई दर्द से भरा गीत सुनूँ!
जब भी कोई,दुखी मन देखूँ,
या जब भी कभी उदास होऊँ,
मैं रो लेता हूँ! खुल कर!
मुझे अच्छा नहीं लगता!
पर क्या क्या करूँ,
मैं तब पैदा हुआ था जब रोना अच्छा था!
वैसे ही जैसे आज कल,
"दाग" अच्छे होते है,
पर मैं जानता हूँ,
आप भी बुरा नहीं मानेगें!
चाहे आप बच्चे हों या तथाकथित बडे(!)!
क्यों कि मानव मन,
आखिरकार कोमल होता है,
बच्चे की तरह!
Saturday, February 26, 2011
Thursday, February 24, 2011
दुआ बहार की!
क्या कह दूँ के तुम्हें करार आ जाये,
मेरी बातों पे तुम्हें ऎतबार आ जाये॥
दिल इस दुनिया से क्यूँ नहीं भरता,
उनकी बेरूखी पे भी प्यार आ जाये।
दर्द इतने मैं कहाँ छुपाऊँ भला,
मौत से कहो एक बार आ जाये।
वीरानियाँ भी तो तेरा हिस्सा हैं,
या खुदा इधर भी बहार आ जाये।
Sunday, February 13, 2011
Valentine Day!
Two young kids, 'Hemanshi' & 'Anjaney' aged about 11 and approx 8 yrs approached me to write a poem each for them which they can dedicate to their mothers on'Valentine day"! I am honored, & think that my journey to poetry has come to its destination!
The poems respectively are here:
Poem from Anshi to her MOM
Mom I wish I had known,
what "Love" is all about,
Only to say it to you,
with conviction that,
I LOVE U!
But on this day,
When the whole world talks of LOVE,
I grow in carefull affection and care of,
ONLY YOU!
around me!
So that one day I can ,
undersatnd and tell others,
what
'LOVE'
is all about!
अंजनेय की कविता उसकी मम्मा (माँ) के लिये!
माँ! क्या फ़र्क है!
मैं कभी जान पाऊँ या नहीं,
कि "प्यार" क्या होता है?
पर जब तक मुझे ये याद रहेगा कि,
कि तू कितने अच्छे नूडल बनाती है,
मेरे लिये,
मुझे समझने की ज़रूरत भी क्या है?
कि 'प्यार' 'व्यार' होता क्या है!
I LOVE U MOMA!
Saturday, February 12, 2011
डरे हुये तुम!
तुम मुझे प्यार करना बन्द मत करना,
इस लिये नहीं कि,
मैं जी नही पाऊँगा,
तुम्हारे प्यार के बिना,
हकीकत ये है, कि
मैं मर नहीं पाऊँगा सुकून से,
क्यो कि,
जिस को कोई प्यार न करता हो,
उसका मरना भी कोई मरना है!
और वैसे भी,
सूनी और वीरान कब्रें,
बहुत ही डरावनी लगती है!
और कौन है? जो फ़ूल रखेगा,
मेरी कब्र पर,तुम्हारे सिवा!
सच में, मैं ये जानता हूँ,
तुम्हें कितना डर लगता है,
वो ’हौरर शो’ देखते हुये!
और डरे हुये तुम
मुझे बिल्कुल अच्छे नहीं लगते।
Saturday, February 5, 2011
तितलियों की बेवफ़ाई!
कुछ और ही होता
चमन का नज़ारा
अगर,
गुल ये जान जाते,
तितलियाँ और भ्रमर,
आते नहीं रंग-ओ-बू के लिये,
मकरंद का रस है,
उनके आने की वजह।
हाँ मगर,
यह छोटा सा मिलन भी,
स्वार्थ के कारण ही सही,
देके जाता है ,
चमन को ,
दास्ताँ हर बार एक नई।
और चलती है,
प्रकृति
सर्जन के,
इस बेदर्द वाकये,
के भरोसे!
फ़ूल का खिलना हो,
या भ्रमर का गुंजन,
जारी है निरंतर,
और,
चमन गुलज़ार है,
दर्द से भरी
पर हसीं
दास्तानो से!
Tuesday, January 25, 2011
बात अफ़साने सी!
चलो आज यूं ही कुछ कहने दो,
ज़िन्दगी बह रही है बहने दो।
पल खुशी के बहुत ही थोडे हैं,
गम के अफ़साने आज रहने दो।
फ़ूल तो फ़ूल हैं सूख जायेंगे,
सूखे पत्ते तो कब्र पे रहने दो।
बात दुनिया की रोज़ करते हैं,
आज तो दिल की बात कहने दो।
गैर की मेहरबानियाँ कमाल की हैं,
आज अपनों के दर्द सहने दो।
मैं अब खुद से मिल के डरता हूँ,
आईना आज मेरे आगे रहने दो।
सच कहुंगा तो वो बुरा मानेगें,
झूंठी और मीठी बात कहने दो।
Thursday, January 6, 2011
तमन्ना
ज़ख्म मेरा गुलाब हो जाये,
अँधेरा माहताब हो जाये,
कैसी कैसी तमन्नायें हैं मेरी,
ये जहाँ बस्ती-ए-ख्वाब हो जाये।
तू कभी मुझको आके ऎसे मिल,
मेरा पानी शराब हो जाये,
मेरी नज़रो में हो वो तासीर,
तेरे रुख पे हिज़ाब हो जाये।
जो भी इन्सान दर्द से मूहँ मोडे,
उसका खाना खराब हो जाये।
रोज़-ए-महशर का इन्तेज़ार कौन करे,
अब तो ज़ालिमों का हिसाब हो जाये!
अँधेरा माहताब हो जाये,
कैसी कैसी तमन्नायें हैं मेरी,
ये जहाँ बस्ती-ए-ख्वाब हो जाये।
तू कभी मुझको आके ऎसे मिल,
मेरा पानी शराब हो जाये,
मेरी नज़रो में हो वो तासीर,
तेरे रुख पे हिज़ाब हो जाये।
जो भी इन्सान दर्द से मूहँ मोडे,
उसका खाना खराब हो जाये।
रोज़-ए-महशर का इन्तेज़ार कौन करे,
अब तो ज़ालिमों का हिसाब हो जाये!
Tuesday, January 4, 2011
गुफ़्तगू बे वजह! दूसरा बयान!
मोहब्बतों की कीमतें चुकाते,
मैने देखे है,
तमाम जिस्म और मन,
अब नही जाता मैं कभी
अरमानो की कब्रगाह की तरफ़।
दर्द बह सकता नहीं,
दरिया की तरह,
जाके जम जाता है,
लहू की मांनिद,
थोडी देर में!
अश्क से गर कोई
बना पाता नमक,
ज़िन्दगी खुशहाल,
कब की हो गई होती।
रिश्तो के खिलौने,
सिर्फ़ बहला सकते है,
दुखी मन को,
ज़िन्दगी गुजारने को,
पैसे चाहिये!!!!!!
Friday, December 31, 2010
गुफ़्तगू बे वजह की!
ज़रा कम कर लो,
इस लौ को,
उजाले हसीँ हैं,बहुत!
मोहब्बतें,
इम्तिहान लेती हैं
मगर!
पहाडी दरिया का किनारा,
खूबसूरत है मगर,
फ़िसलने पत्थर पे
जानलेवा
न हो कहीं!
मैं नही माज़ी,
मुस्तकबिल भी नही,
रास्ते अक्सर
तलाशा करते हैं
गुमशुदा को!मगर!
किस्मतें जब हार कर,
घुटने टिका दे,
दर्द साया बन के,
आता है तभी!
Saturday, December 25, 2010
मानवीय विवशतायें !
विवशतायें!
मौन और संवाद की,
विवशतायें,
हर्ष और अवसाद की,
विवशताये,
विवेक और प्रमाद की,
विवशतायें,
रुदन और आल्हाद की,
विवशतायें,
बेरुखी और अहसास की,
विवशतायें
मक्तूल और जल्लाद की,
विवशतायें
हिरण्कष्यप और प्रह्ललाद की,
हाय रे मानव मन,
और उसकी विवशतायें!
Tuesday, December 14, 2010
लडकियाँ और आदमी!
लडकियाँ कितनी ,
सहजता से,
बेटी से नानी बन जातीं है!
लडकियाँ आखिर,
लडकियाँ होती हैं!
शिव में ’इ’ होती है,
लडकियाँ,
वो न होतीं तो,
’शिव’ शव होते!
’जीवन’ में ’ई’,
होतीं हैं लडकियाँ
वो न होतीं तो,
वन होता जीव-’न’ न होता!
या ’जीव’ होता जीव-न, न होता!
और ’आदमी’ में भी,
’ई’ होतीं हैं,यही लडकियाँ!
पर आदमी! आदमी ही होता है!
और आदमी लडता रह जाता है,
अपने इंसान और हैवानियत के,
मसलों से!
आखिर तक!
फ़िर भी कहता है,
आदमी!
क्यों होती है?
ये ’लडकियाँ’!
हालाकि,
न हों उसके जीवन में,
तो रोता है!
ये आदमी!
है न कितना अजीब ये,
आदमी!
Thursday, December 9, 2010
श्श्श्श्श्श्श्श्श! किसी से न कहना!
मैने सोच लिया है,
अब सच के बारे में कोई बात नहीं करुंगा,
खास तौर से मैं,
अपने आपसे!
वैसे भी!
सोये हुये भिखारी के घाव पर,
भिनभिनाती मक्खियों की तरह,
कहाँ सुकून से रहने देती है,
रोज़ टीवी से सीधे मेरे ज़ेहेन में ठूंसी जाने वाली खबरें!
कैसे कोई सोच सकता है? और वो भी,
सच के बारे मैं!
चौल की पतली दीवार से,
छन छन कर आने वाली,
बूढे मियाँ बीवी की रोज़ की झिकझिक की तरह,
हिंसा की सूचनायें,जो मेरा समाज
बिना मेरी इज़ाजत के प्रसारित करता रहता है,
मुझे ख्याब तो क्या?
एक पुरसुकून नींद भी नहीं लेने देतीं!
क्या होगा?
बचपन के सपनो का!
तथा कथित महानायको की भीड,
और सुरसा की तरह मूँह बाये
हमारी आकाक्षाओं की अट्टालिकायें,
उस पर यथार्थ की दलदली धरातल,
एक साथ जैसे एक साजिश के तहत,
लेकर जा रही है बौने इंसान को
और भी नीचे!
शायद पाताल के भी पार!
अब सच के बारे में,
मैं कोई बात नहीं करुंगा!
किसी से भी!
खुद अपने आप से भी नहीं!
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